पारिस्थितिकी तंत्र की परिभाषा – जिस तंत्र में जैविक एवं अजैविक घटक परस्पर सहयोग से जीवन का निर्वहन करते हैं पारिस्थितिकी तंत्र कहलाता है। यह जैविक एवं अजैविक तत्वों का सकल योग होता है जो एक क्षेत्र के अंदर निवास करता है।
पारिस्थितिकी को अंग्रेजी में Ecology कहते हैं, Ecology शब्द की उत्पत्ति ग्रीक भाषा के ‘Oikos’ एवं ‘Logos’ दो शब्दों के योग से बना है। oikos का अर्थ होता है ‘वासस्थान’ अर्थात ‘रहने की जगह’ और Logos का अर्थ होता है अध्ययन। अर्थात निवास स्थान के अध्ययन को ही Ecology (पारिस्थितिकी) कहते हैं।
पारिस्थतिक तंत्र जलीय हो अथवा स्थलीय, उसकी संरचना दो घटको से मिलकर बनती है – सजीव घटक व निर्जीव घटक।
सजीव घटक
इसके अन्तर्गत सभी जीवित प्राणी आते हैं जो कि पर्यावरण में पाये जाते हैं । जैसे पादप, जीव-जन्तु एवं सूक्ष्मजीव आते हैं। इनको जैविक (biotic) घटक भी कहा जाता है। जीवों के पारस्परिक एवं पर्यावरण के साथ उनके अंतर संबंधों के वैज्ञानिक अध्ययन को पारिस्थितिकी कहते हैं।पोषण के आधार पर सजीव घटको को तीन श्रेणियाँ मे बाँटा जाता है –
1. उत्पादक
2. उपभोक्ता
(i) प्रथम चरण उपभोक्ता
(ii) द्रितीय चरण उपभोक्ता
(iii) तृतीया चरण उपभोक्ता
3. उपघटक
उत्पादक – जो सजीव घटक अपना भोजन स्वयं बनाते है वे सवपोषी कहलाती है। इन्हे उत्पादक कहते है जैसे हरे पेड़ पौधे। हरे पौधे, प्रकाश संश्लेषण की क्रिया मे सूर्य के के प्रकाश की उपस्थति मे कार्बन डाइऑक्साइड और जल लेकर लेकर क्लोरोफिल की सहायता से अपना भोजन स्वयं बनते है।
उपभोक्ता – जो जीव भोजन के लिए प्रत्यक्ष अथवा अप्रतयक्ष रूप से उत्पादक अथवा हरे पौधों पर निर्भर रहते है उपभोक्ता कहलते है। भोजन के लिए दुसरो पर निर्भर रहने के कारन इन्हे परपोषी भी कहते है। उपभोक्ता को तीन भागो मे बाँटा गया है –
प्रथम चरण उपभोक्ता – जो शाकाहारी जंतु भोजन के लिए सीधे उत्पादक अथवा हरे पेड़ पौधे पर निर्भर रहते है। प्रथम चरण के उपभोक्ता कहलाते है जैसे – मनुष्य, गाय, बकरी, हिरण आदि पेड़ पौधे पर निर्भर रहते है।
द्वितीय चरण उपभोक्ता – जो जानवर शाकाहारी जंतुओं को भोजन के रूप मे प्रयोग करते है द्वितीय चरण उपभोक्ता कहलाते है। जैसे शेर, चीता, भेड़िया आदि।
तृत्य चरण उपभोक्ता – इसी प्रकार द्वितीय चरण उपभोक्ता अर्थात शेर, चीता, आदि को मृत अवस्था मे भोजन के रूप मे ग्रहण करने वाले जीव तृत्य चरण उपभोक्ता या अपमार्जक कहलाते है – जैसे गिद्ध, बाज, चील तथा कौआ मृत जानवरो का मांस कहते है।
अपघटक में सूक्ष्म जीव है जो मृत पौधों और जंतुओं के मृत शरीर में उपस्थित कार्बनिक यौगिकों का अपघटन करते हैं तथा उन्हें सरल यौगिक और तत्वों में बदल देते हैं यह सरल यौगिक तथा तत्व पृथ्वी के पोषण भंडार में वापस चले जाते हैं और जी मंदिर में अब घटकों का महत्व घटक पौधों और जंतुओं के मृत शरीरों के अपघटन में सहायता करते हैं तथा इस प्रकार वातावरण को स्वच्छ रखने का ही कार्य करते है।
निर्जीव घटक
पर्यावरण के निर्जीव घटक के अंतरगर्त स्थल मंडल, जल मंडल, तथा वायु मंडल आते है। ये सभी हमें प्राकर्तिक से प्राप्त होते है। निर्जीव घटक के कारण भी सजीवों का विकास बेहतर ढंग से संभव है। किसी भी निर्जीव घटक के अधिक या काम होने से पारिथितिक तंत्र असंतुलित हो जाता है।
आहार श्रृंखला
आहार श्रृंखला या खाद्य श्रृंखला विभिन्न प्रकार के जीवों का वह क्रम होता है जिसमें जीव जन्तु भोज्य अर्थात भोजन और भक्षक अर्थात भोजन को खाने वाले के रूप में सम्बंधित होते हैं। आहार श्रृंखला में रासायनिक एवं ऊर्जा उत्पादक, उपभोक्ता एवं अपघटनकर्ता द्वारा निर्जीव पर्यावरण में प्रवेश कर फिर से चक्रीकरण द्वारा जैविक घटकों में प्रवेश कर जाती है।
आहार जाल
हर खाद्य श्रृंखला में प्राथमिक उत्पादक, प्राथमिक उपभोक्ता, द्वितीयक उपभोक्ता, तृतीयक उपभोक्ता एवं उच्च उपभोक्ता में सीधा एवं सरल संबंध होता है। लेकिन जब कई प्रकार के जन्तु एक ही प्रकार के भोज्य पदार्थ खाते हैं या एक ही प्रकार की जाति कही प्रकार के भोज्य जन्तुओं का भक्षण करते हैं तो आहार श्रृंखला जटिल हो जाती है। इसी प्रकार की जटिल खाद्य श्रृंखला को ही आहार जाल कहते हैं।
ऊर्जा का प्रवाह
खाद्य श्रृंखला में खाद्य पदार्थों या ऊर्जा का क्रमबद्ध स्थानान्तरण होता है। पृथ्वी तक पहुँचने वाली सौर ऊर्जा का करीब एक प्रतिशत ही प्रकाशसंश्लेषण क्रिया में प्रयुक्त होता है। विभिन्न जीवों में जैविक ऊतकों के निर्माण की प्रक्रिया को जैव संश्लेषण कहते हैं। वास्तव में जैव संश्लेषण की प्रक्रिया सौर ऊर्जा या प्रकाश ऊर्जा के रासायनिक ऊर्जा में रूपांतरण को प्रदर्शित करती है। इसके विपरीत जैविक पदार्थों के विघटन एवं वियोजन की प्रक्रिया को जैव अवनयन या जैव अवक्रमण कहते हैं। इस तरह जैव अवनयन की प्रक्रिया पोषक तत्त्वों तथा रासायनिक ऊर्जा की ऊष्मा के रूप में निर्मुक्ति को प्रदर्शित करती है।
पर्यावरण परिवर्तन : प्राणियों का अनुकूलन
अनुकूलन, एक प्रक्रिया है जिसके माध्यम से जीवित प्राणी अपने वातावरण में समायोजित होते हैं। जिस तरह मनुष्य पर्यावरण के अनुकूल होता है, उसी तरह उसकी सोच भी उन परिवर्तनों को स्वीकार करती है जो वे अनुभव करते हैं। इन परिवर्तनों से मानसिक योजनाओं में परिवर्तन होता है।
सजीवों में अनुकूलन
जीवों के वैसे लक्षण जो उन्हें किसी खास माहौल में जिंदा रहने में सक्षम बनाते हैं, अनुकूलन कहलाते हैं। किसी भी जीव में किसी विशेष अनुकूलन के विकसित होने में हजारों वर्ष लग जाते हैं। जिन जीवों में उचित अनुकूलन विकसित होता है वे बदले हुए परिवेश में भी जिंदा बच जाते हैं।
पारिस्थितिकी तंत्र का संतुलन हमारा दायित्व
पर्यावरण को संतुलित रखना प्रत्येक सजीव घटक तथा निर्जीव घटक की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। हम भी पारिस्थितिकी तंत्र के महत्वपूर्ण घटक है। परन्तु हमारे क्रियाकलाप प्राकर्तिक को असंतुलित कर रहा है। किसी भी सजीव या निर्जीव घटक के कम या अधिक होने से पारिस्थितिकी असंतुलन बढ़ता है जिससे पारिस्थितिकी तंत्र प्रभावित हो रहा है और मानव जीवन भी।
पारिस्थितिकी संतुलन को बनाए रखने के लिए हमें निम्नवत कार्य करना चाहिए-
1. वह वृक्षों को न काट।
2. जल के स्रोता जैसे तालाब, नदी, झील, समुद्र आदि को प्रदूषित न करे।
3. वन्य प्राणियों की संरक्षण हम सबका दायित्व है।
4. वायु जल और भूमि बहुमूल्य प्राकर्तिक संसाधन है। इन संसाधनों को प्रदूषित न करे।
5. खेतो मे जैविक खाद्य के प्रयोग को बढ़ावा दे।
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