द्वितीय विश्व युद्ध (1939 – 1945)
1. ऐसा माना जाता है की द्वितीय विश्व युद्ध की पृष्ठभूमि पहले विश्व युद्ध के साथ ही बनने लगी थी। पहले विश्व युद्ध में जर्मनी को हारने के बाद वर्साय की संधि पर हस्ताक्षर करने के साथ ही बहुत भारी नुकसान भुगतना पड़ा, इसे एक बड़े भू – भाग को खोना पड़ा एवं सेना को सीमित कर दिया गया ।
2. द्वितीय विश्व युद्ध सितम्बर 1939 से 1945 तक लड़ा गया। 6 वर्ष तक चलने वाले इस युद्ध में अरबो की संपत्ति का नुकसान हुआ और करोड़ों बेगुनहा लोग मारे गये।
3.इस युद्ध में करीब 70 देशों ने भाग लिया एवं संम्पूर्ण विश्व दो भागों में बट गया। जिसे मित्र राष्ट्र और धुरी राष्ट्र के नाम से पुकारा जाने लगा।
मित्र राष्ट्र
- अमेरिका
- सोवियत संघ
- ब्रिटेन
- फ्रांस
धुरी राष्ट्र
- जर्मनी
- जापान
- इटली
नोट: – द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति अमेरिका द्वारा जापान के दो शहरों हिरोशिमा और नागासाकी पर परमाणु बम्ब गिराने के साथ हुआ।
द्वितीय विश्व युद्ध के कारण
जर्मनी के साथ बुरा व्यवहार: –
मित्र राष्ट्रों ने पहले विश्व युद्ध में जर्मनी के साथ बुरा व्यवहार किया जिस वजह से जर्मनी बदला लेने के लिए आतुर था, उसी समय जर्मनी में हिटलर और इटली में मुसोलिनी ने सत्ता पर आकर दूसरे विश्व युद्ध के बीज बो दिया।
विश्व मंदी का असर: –
- 1930 ई में वैश्विक आर्थिक मंदी ने पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था को हिलाकर रख दिया।
तानाशाही शक्तियो का जन्म: –
उस समय सभी देश अपनी – अपनी शक्ति को बढ़ाने में लगे थे तभी हिटलर एवं मुसोलिनी दोनों कट्टर तानाशाह बनकर उभरे। दोनों ने ही लोकतन्त्र को ख़त्म कर दिया और राष्ट्रसंघ (लीग ऑफ़ नेशंस) के सदस्य बनने से इंकार कर दिया।
द्वितीय विश्व युद्ध का आगाज
- 1 सितम्बर 1939 को जर्मनी ने पोलैंड पर आक्रमण करके उसपर अधिकार कर लिया।
- दूसरी तरफ फ्रांस और इंग्लैंड ने जर्मनी पर आक्रमण करने की घोषणा कर दी। यही से द्वितीय विश्वयुद्ध की शुरुआत हुई।
द्वितीय विश्व युद्ध का अंत
- जर्मनी इंग्लैंड को हराने में नाकाम रहा तथा 1944 ई में इटली ने अपनी हार मान ली।
- अमेरिका ने 1945 में जापान के हिरोशिमा और नागासाकी पर परमाणु बम्ब गिरा दिया जिससे लाखो लोग मारे गये।
- फिर हिटलर ने भी घुटने टेक दिए जिसके साथ ही द्वितीय विश्व युद्ध का अंत हुआ।
परमाणु बम और अमेरिका
- अमेरिका ने 1945 में जापान के दो शहरों हिरोशिमा तथा नागासाकी पर दो परमाणु बम गिराए।
- दोनों बमो की क्षमता 15 से 21 किलोटन तक थी और नाम लिटिल बॉय तथा फैट मेन था।
- अमेरिका द्वारा बम गिराए जाने का कुछ विद्वानों द्वारा समर्थन किया गया तथा अन्य द्वारा विरोध किया गया।
आलोचक
- आलोचकों ने कहा की बम गिरना जरुरी नहीं था क्योकि जापान हार मैंने वाला था और बम गिराने से केवल विनाश हुआ। इस हमले का मुख्य उद्देश्ये अमेरिका द्वारा शक्ति प्रदर्शन था।
समर्थक
- समर्थकों ने कहा की आगे होने वाली हानि को रोकने के लिए बम गिरना ज़रूरी था।
द्वितीय विश्व युद्ध के परिणाम
- जन व धन की अत्यधिक हानि हुई।
- अमेरिका एवं सोवियत संघ का शक्ति के रूप में उदय हुआ।
- सयुंक्त राष्ट्र संघ की स्थापना।
- साम्यवादी प्रवृति में वृद्धि।
- शीतयुद्ध का आरंभ।
- उपनिवेशवाद का पतन।
- यूरोप के राजनैतिक मानचित्र में परिवर्तन।
निष्कर्ष
- द्वितीय विश्व युद्ध ने भयंकर तबाही मचाई जिसे आज भी जापान में देखा जा सकता है।
- जापान में गिरे परमाणु बम के निशान मिटे नहीं।
- इस युद्ध ने यह तो तय कर दिया की देशो के बीच समय समय पर बातचीत होनी जरुरी है।
- इस युद्ध में कई सारे नये अविष्कार भी हुए जैसे जेट इंजन, राडार, आदि।
- इसकी सबसे बड़ी उपलब्धि है सयुंक्त राष्ट्र संघ की स्थापना, जो आज भी कार्य कर रहा है।
शीत युद्ध (1945 – 91)
जैसा कि आपने ऊपर पड़ा कि द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद दो महाशक्तियों अमेरिका और सोवियत संघ का उदय हुआ और यहीं से शुरुआत हुई शीतयुद्ध की
शीत युद्ध क्या है?
- शीत युद्ध से अभिप्राय एक ऐसी स्तिथि से है जिसमे दो देशो के बीच रक्तरंजित (आमने सामने की लड़ाई ) युद्ध न होकर केवल विचाधारात्मक लड़ाई होती है।
- दूसरे शब्दों में, दोनों महाशक्तियां युद्ध के आलावा अलग अलग तरीको (गठबंधन बना कर, हथियारों के निर्माण द्वारा) से खुद तो एक दूसरे से बेहतर साबित करने का प्रयास करती है और अपरोध के तर्क के कारण युद्ध करने का खतरा मोल नहीं लेती।
शीत युद्ध की शुरुआत का मुख्य कारण
- दूसरे विश्व युद्ध के बाद बनी दोनों ही महा शक्तियाँ सोवियत संघ और अमेरिका की विचारधारा पूरी तरह से अलग थी इसी वजह से शुरुआत हुई शीत युद्ध की।
विचारधारा
अमेरिका
- पूंजीवाद :-पूंजीवाद के अंतर्गत एक देश के सभी उत्पादन सम्बंधित फैसले लेने का अधिकार सामान्य जनता के हाथ में होता है। दूसरे शब्दों में देश में निजी क्षेत्र पूरी तरह से स्वतन्त्र होता है।
- उदारवाद :- इस विचार के अंतर्गत देश में अधिक से अधिक स्वतंत्रता प्रदान करने के प्रयास किये जाता है।
- लोकतंत्र :- लोकतान्त्रिक व्यवस्था में सामान्य जनता द्वारा अपने शासको का चुनाव स्वयं किया जाता है।
सोवियत संघ
शीत युद्ध तृतीय विश्व युद्ध में क्यों नहीं बदला?
अपरोध
- अपरोध का तर्क वह स्थिति है जिसमे दोनों देश आपस में युद्ध करने का खतरा नहीं लेते क्योंकि दोनों देश बहुत शक्तिशाली होते है और युद्ध के बाद होने वाली हानि को उठाना नहीं चाहते।
दो ध्रुवीय विश्व की शरुआत
वह स्थिति जब विश्व में शक्ति के दो केंद्र हो, दो ध्रुवीयता कहलाती है और ऐसे विश्व को दो ध्रुवीय विश्व कहा जाता है।
शीतयुद्ध का दौर एक ऐसा ही समय था जब विश्व में केवल दो महा शक्तियां थी पहली थी सोवियत संघ और दूसरी थी अमेरिका इस समय को ही 2 ध्रुवीय विश्व कहा जाता है।
महाशक्तियां और छोटे देश
सैन्य संधि संगठन
शीत युद्ध के दौरान दोनों ही महा शक्तियों ने अपने साथ अन्य देशों को शामिल करना शुरू किया और दोनों ही महा शक्तियों ने अपने अपने सैन्य संधि संगठन बनाएं।
- दक्षिण पूर्वी एशियाई संधि संगठन
- उद्देश्य
- साम्यवादियों की विस्तारवादी नीतियों से दक्षिण पूर्व एशियाई देशो की रक्षा करना।
- उद्देश्य
- केंद्रीय संदेश संधि संगठन
- उद्देश्य
- सोवियत संघ को मध्य पूर्व से दूर रखना।
- साम्यवाद के प्रभाव को रोकना।
- उद्देश्य
- वारसा सन्धि (1955)
- उद्देश्य
- इसका उद्देश्य नाटो में शामिल देशो से मुकाबला करना था।
महाशक्तियां छोटे देशों के साथ गठबंधन क्यों बनाती थी?
- महत्वपूर्ण संसाधन
- सैनिक ठिकाने
- भू – क्षेत्र
- आर्थिक मदद
छोटे देश महा शक्तियों के गठबंधन में क्यों शामिल होते थे?
- सुरक्षा का वायदा
- सैन्य सहायता
- हथियार
- आर्थिक मदद
शीत युद्ध के दायरे
क्युबा मिसाइल संकट (1962)
- क्यूबा अमेरिका के किनारे बसा एक समाजवादी देश था।
- सबसे बड़ी समस्या यह थी कि यहां पर समाजवादी सरकार थी, पर यह अमेरिका के किनारे पर बसा हुआ था।
- इसी वजह से सोवियत संघ को यह डर सताने लगा कि कहीं अमेरिका क्यूबा की समाजवादी सरकार को गिराकर वहां अपनी मनपसंद सरकार की स्थापना ना कर दे।
- इसीलिए सोवियत संघ ने क्यूबा पर मिसाइलें तैनात करने का फैसला किया।
- क्यूबा पर मिसाइलें तैनात किये जाने से अब अमेरिका सोवियत संघ के करीबी निशाने में आ गया।
- अमेरिका को लगभग 3 हफ्ते बाद पता चला कि सोवियत संघ क्यूबा पर अपनी मिसाइलें तैनात कर रहा है।
- यह देखते हुए अमेरिका ने भी कड़े कदम उठाये और अपने जंगी बेड़ो को आगे कर दिया और पहली बार दोनों महा शक्तियां आमने सामने आ गई।
- ऐसा लगा कि इस बार युद्ध हो ही जाएगा और शीत युद्ध तृतीय विश्व युद्ध में बदल जाएगा पर ऐसा नहीं हुआ।
- इस घटना को शीत युद्ध का चरम बिंदु कहा जाता है, क्योंकि पहली बार दोनों महा शक्तियां आमने सामने आई ऐसा लगा कि दोनों में युद्ध हो जाएगा।
बर्लिन की नाके बंदी (1948)
- 1948 में सोवियत संघ ने बर्लिन की घेराबंदी शुरू की ताकि बर्लिन पर पूरा नियंत्रण कर सके और अन्य देशों के प्रभाव से उसे बचा सके इसे ही बर्लिन की घेराबंदी कहा जाता है
कोरिया संकट (1950)
- 1950 में उत्तरी कोरिया ने दक्षिण कोरिया पर आक्रमण किया एक तरफ जहां उत्तरी कोरिया का समर्थन सोवियत संघ कर रहा था वहीं दूसरी तरफ दक्षिण कोरिया का समर्थन अमेरिका द्वारा किया जा रहा था इस तरह से अप्रत्यक्ष रूप से दोनों महाशक्तिया युद्ध कर रही थी।
वियतनाम मे अमेरिका का हस्तक्षेप (1954-1975)
- 1954 के दशक के आसपास उत्तरी वियतनाम जिसे सोवियत संघ का समर्थन प्राप्त था और दक्षिणी वियतनाम जिसे अमेरिका का समर्थन प्राप्त था के बीच युद्ध शुरू हो गया इसे ही वियतनाम संकट कहा जाता है
हंगरी मे सोवियत संघ का हस्तक्षेप (1956)
- 1956 में सोवियत संघ द्वारा हंगरी में हस्तक्षेप करने की वजह से अमेरिका और सोवियत संघ के रिश्तो में और खराबी आई।
शीत युद्ध और शांति
परमाणु संधियाँ
- शीतयुद्ध की वजह से दोनों ही महा शक्तियों का सैन्य खर्चा बढ़ने लगा क्योंकि वह एक दूसरे से मुकाबला करने के लिए ज्यादा से ज्यादा हथियार बनाए जा रहे थे।
- इसी वजह से दोनों महा शक्तियों ने तय किया कि वह आपस में समझौता करेंगे और इन हथियारों के उत्पादन पर रोक लगाएंगे।
- इस दौरान महा शक्तियों ने तीन मुख्य संधियाँ की।
SALT (Strategic Arms Limitation Talk)
- परमाणु अस्त्र परिसीमन वार्ताएं
इन वार्ताओं के द्वारा अमेरिका और सोवियत संघ ने हथियारों के उत्पादन पर रोक लगाने के प्रयास किए दोनों ने आपस में कुछ विशेष हथियारों को लेकर समझौता किया और यह फैसला किया कि इनके उत्पादन को या तो रोका जाएगा या सीमित किया जाएगा।
LTBT (Limited Test Ban Treaty)
- सीमित परमाणु परीक्षण संधि
यह संधि वायुमंडल बाहरी अंतरिक्ष और पानी के अंदर परमाणु हथियारों के परीक्षण पर प्रतिबंध लगाती है इस पर अमेरिका ब्रिटेन और सोवियत संघ ने 5 अगस्त 1963 को मॉस्को में हस्ताक्षर किए थे और यह 10 अक्टूबर 1963 से प्रभावी है।
NPT (Non-Proliferation Treaty)
- परमाणु अप्रसार संधि
इस संधि के अनुसार उन देशों को परमाणु संपन्न देश माना गया है जो 1 जनवरी 1967 से पहले परमाणु हथियार का विस्फोट कर चुके हैं और इस संधि के अनुसार इन देशों के अलावा कोई भी अन्य देश परमाणु हथियारों का परीक्षण नहीं कर सकता।
इस संधि पर 1968 में वाशिंगटन लंदन और मॉस्को में हस्ताक्षर हुए और यह संधि 5 मार्च 1970 से प्रभावी हुई।
गुटनिरपेक्षता
गुटनिरपेक्ष आन्दोलन
शीतयुद्ध के समय दो महाशक्तियो के तनाव के बीच, एक नये आन्दोलन का उदय हुआ जो दो गुटों में बट रहे देशों से अपने को अलग रखने के लिए था। जिसका उद्देश्य विश्व शांति था, इसे ही गुटनिरपेक्ष आन्दोलन कहते है।
गुटनिरपेक्ष आन्दोलन महाशक्ति के गुटों में शामिल न होने का आन्दोलन था। लेकिन ये अन्तर्राष्ट्रीय मामलों से अलग – थलग नहीं था।
स्थापना (1955 में)
- जोसेफ ब्रांज टीटो -युगोस्लवीया
- जवाहर लाल नेहरू – भारत
- गमाल अब्दुल नासिर -मिस्र
ने बांडुंग में एक सफल बैठक की, जिससे गुटनिरपेक्ष आन्दोलन की विचारधारा का उदय हुआ।
पहला सम्मेलन
गुटनिरपेक्ष आंदोलन का पहला सम्मेलन 1961 में बेलग्रेड में हुआ। जिसमे 25 देश शामिल हुए। इसके 14वें सम्मलेन में 166 सदस्य देश और 15 पर्यवेक्षक देश शामिल हुए।
संस्थापक नेता
- जोसेफ ब्रांज टीटो -युगोस्लवीया
- जवाहर लाल नेहरू – भारत
- गमाल अब्दुल नासिर -मिस्र
- सुकर्णो -इंडोनशिया
- एनक्रुमा – घाना
पृथकवाद
पृथकवाद से हमारा अभिप्राय ऐसी नीति से है जिसमे एक देश खुद को अन्तर्राष्ट्रीय मामलो से अलग रखता है। दूसरे शब्दों में वह किसी अन्य देश से कोई संबंध नहीं रखता।
क्या गुटनिरपेक्षता पृथकवाद है?
गुटनिरपेक्षता पृथकवाद नहीं है क्योकि पृथकवाद का अभिप्राय एक ऐसी नीति से है जिसमे एक देश खुद को अन्तर्राष्ट्रीय मामलो से अलग रखता है। जबकि गुटनिरपेक्षता केवल दोनों महाशक्तियों के गुटों से दूर रहने से सम्बंधित थी बाकि सभी अन्य देशो से गुटनिरपेक्ष देशों के अच्छे सम्ब्नध थे।
तठस्थता
तठस्थता का मतलब होता है युद्ध से दूर रहना अर्थात युद्ध में शामिल न होना। तठस्थ देश न तो युद्ध में हिस्सा लेते है न ही उसे समाप्त करवाने के लिए कोई कदम उठाते है।
क्या गुटनिरपेक्षता तठस्थतावाद है?
गुटनिरपेक्षता तठस्थतावाद नहीं है क्योकि तठस्थ देश वह देश होता है जिसे युद्ध क होने या न होने से कोई फर्क नहीं पड़ता न तो वह युद्ध में हिस्सा लेता है न ही उसे समाप्त करवाने के लिए कोई कदम उठता है। अगर गुटनिरपेक्षता की बात करे तो इसमें शामिल सभी देशो ने युद्ध में हिस्सा तो नहीं लिया पर उसे शांत करवाने के लिए निरन्तर कदम उठाये। गुटनिरपेक्ष देशो ने महाशकितयों के हर सही कदम का समर्थन किया तथा हर गलत कदम का विरोध भी किया जो युद्ध शांत करवाने में उनकी भूमिका को दर्शाता है।
गुटनिरपेक्षता और भारत
फायदे
- स्वतन्त्र विदेश नीति
- दोनों महाशक्तियों का समर्थन
- अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान मिली
- एक महाशक्ति द्वारा विरोध किये जाने पर दूसरी महाशक्ति का समर्थन
- अन्य विकासशील देशो का सहयोग
आलोचना
- भारत की नीति में स्थिरता नहीं
- भारत की नीति सिंद्धातविहीन
- अंतर्राष्ट्रीय फैसले लेने से बचने की कोशिश
- 1971 में सोवियत संघ द्वारा ली गई मदद, गुटनिरपेक्षता का उल्लंघन
- दोनों महाशक्तियों से लाभ प्राप्त करने की कोशिश करना
गुटनिरपेक्षता की प्रासंगिकता
- गुटनिरपेक्षता की प्रासंगिकता से हमारा अभिप्राय आज समय में गुटनिरपेक्षता की ज़रूरत से है।
- बहुत से विद्वानों का यह मानना है की वर्तमान में गुटनिरपेक्षता की कोई ज़रूरत नहीं है क्योकि गुटनिरपेक्षता का जन्म शीत युद्ध के कारण हुआ था और अब शीत युद्ध ख़त्म हो चूका है इसीलिए अब गुटनिरपेक्षता अप्रासंगिक है।
- पर वह देश जो गुटनिरपेक्षता में शामिल है उनके इस बारे में अलग विचार है।
गुटनिरपेक्षता की आज समय में उपयोगिता
- शांति को बढ़ावा देना
- विकास को बढ़ावा देना
- अंतर्राष्ट्रीय समस्याओ के लिए जागरूकता पैदा करना
- छोटे देशो की स्वतन्त्र की रक्षा करना
- पर्यावरण और आतंकवाद जैसी समस्याओ का मुकाबला करने के लिए।
नव अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था
- शीत युद्ध के दौरान बनी तीसरी दुनिया यानि गुटनिरपेक्षता में शामिल लगभग सभी वह देश थे जो अभी अभी आज़ाद हुए थे और गरीब व अल्पविकसित थे। उस समय उनके सामने मौजूद सबसे बड़ी चुनौती आर्थिक विकास करना तथा देश को गरीबी के जाल से बाहर निकालना था।
- इसी कारणवश तीसरी दुनिया के देशो ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर आवाज़ उठाई और मांग की, कि उन्हें भी विकास करने के सामान अवसर मिलने चाहिए।
- इसी मांग को देखते हुए 1972 में संयुक्त राष्ट्र संघ के व्यापर और विकास से सम्बंधित सम्मेलन अंकटाड (United Nations Conference on Trade and Development) में टुवर्ड्स अ न्यू ट्रेड पॉलिसी फॉर डेवलपमेंट के नाम से एक रिपोर्ट पेश की गई। इसमें मुख्य रूप से अंतर्राष्ट्रीय व्यापार की प्रणाली में सुधार के प्रस्ताव थे।
- अल्पविकसित देशो का अपने संसाधनों पर पूर्ण नियंत्रण।
- अल्पविकसित देशो को विकसित देशो के बाजार में व्यपार करने का मौका मिले।
- विकसित देशो से मंगाई जाने वाली प्रौद्योगिकी की कीमत कम हो।
- अल्पविकसित देशो को भी अंतर्राष्ट्रीय संस्थानों में विकसित देशो जितना महत्व प्रदान किया जाये।
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