यक्ष-युधिष्ठिरसंवादः
श्लोक 1: यक्ष का प्रश्न
“यक्षः- किंस्विद्गुरुतरं भूमेः किंस्विदुच्चतरं च खात्।
किंस्विच्छीघ्रतरं वायोः किंस्विद्बहुतरं तृणात्॥”
हिंदी अनुवाद:
यक्ष ने पूछा: धरती से भारी क्या है? आकाश से ऊंचा क्या है? हवा से तेज़ क्या है? और घास से अधिक क्या है?
व्याख्या:
यह प्रश्न जीवन के विभिन्न पहलुओं के बारे में है, जहां यक्ष जानना चाहता है कि भौतिक और अमूर्त चीजों में से कौन सी सबसे अधिक महत्वपूर्ण और प्रभावशाली है।
श्लोक 2: युधिष्ठिर का उत्तर
“युधिष्ठिरः- माता गुरुतरा भूगेः खात्पितोच्चतरस्तधा।
मनः शीघ्रतरं वाताच्चिन्ता बहुतरी तृणात्॥”
हिंदी अनुवाद:
युधिष्ठिर ने उत्तर दिया: धरती से भारी माँ है, और आकाश से ऊंचा पिता है। हवा से तेज़ मन है, और घास से अधिक चिंता है।
व्याख्या:
युधिष्ठिर जीवन के वास्तविक मूल्य को पहचानते हुए उत्तर देते हैं। माँ की ममता और पिता का सम्मान सबसे ऊंचा है। मन की गति सबसे तेज़ है, और चिंता वह है जो मनुष्य को सबसे अधिक प्रभावित करती है।
श्लोक 3: यक्ष का दूसरा प्रश्न
“यक्षः- किंस्वित्प्रवसतो मित्रं किंस्विन्मित्रं गृहे सतः।
आतुरस्य च किं मित्रं किंस्विन्मित्रं मरिष्यतः॥”
हिंदी अनुवाद:
यक्ष ने पूछा: यात्रा में कौन मित्र है? घर में कौन मित्र है? बीमार का मित्र कौन है? और मरने वाले का मित्र कौन है?
व्याख्या:
यक्ष ने जीवन की विभिन्न अवस्थाओं में मित्र की भूमिका के बारे में पूछा, जिससे युधिष्ठिर की विवेकशीलता का परीक्षण किया जा सके।
श्लोक 4: युधिष्ठिर का उत्तर
“युधिष्ठिरः- विद्या प्रवसतो मित्रं भार्या मित्रं गृहे सतः।
आतुरस्य भिषमित्रं दानं मित्रं मरिष्यतः॥”
हिंदी अनुवाद:
युधिष्ठिर ने उत्तर दिया: यात्रा में विद्या मित्र है, घर में पत्नी मित्र है। बीमार का मित्र डॉक्टर है, और मरने वाले का मित्र दान है।
व्याख्या:
युधिष्ठिर ने दर्शाया कि जीवन के विभिन्न चरणों में अलग-अलग चीजें मनुष्य की सबसे बड़ी सहारा होती हैं। ज्ञान, जीवनसाथी, चिकित्सक, और दान को इन चार स्थितियों में सबसे महत्वपूर्ण माना गया है।
श्लोक 5: यक्ष का तीसरा प्रश्न
“यक्षः- किं नु हित्वा प्रियो भवति किं नु हित्वा न शोचति।
किं नु हित्वार्थवान्भवति किं नु हित्वा सुखी भवेत्॥”
हिंदी अनुवाद:
यक्ष ने पूछा: क्या छोड़ने से प्रिय बन जाता है? क्या छोड़ने से शोक नहीं होता? क्या छोड़ने से धनवान बनता है? और क्या छोड़ने से सुखी होता है?
व्याख्या:
यह प्रश्न इच्छाओं, भावनाओं और सुख के साथ संबंध का परीक्षण करता है। यक्ष यह जानना चाहता है कि त्याग का मनोवैज्ञानिक और सामाजिक प्रभाव क्या है।
श्लोक 6: युधिष्ठिर का उत्तर
“युधिष्ठिरः- मानं हित्वा प्रियो भवति क्रोधं हित्वा न शोचति।
कामं हित्वार्थवान्भवति लोभं हित्वा सुखी भवेत्॥”
हिंदी अनुवाद:
युधिष्ठिर ने उत्तर दिया: अहंकार छोड़ने से प्रिय बनता है, क्रोध छोड़ने से शोक नहीं होता। इच्छाएं छोड़ने से धनवान बनता है, और लालच छोड़ने से सुखी होता है।
व्याख्या:
युधिष्ठिर के अनुसार, त्याग मनुष्य के जीवन में बड़ी भूमिका निभाता है। अहंकार, क्रोध, कामना और लोभ जैसे नकारात्मक गुणों का त्याग ही वास्तविक खुशी और सफलता की कुंजी है।
श्लोक 7: यक्ष का चौथा प्रश्न
“यक्षः- मृतः कथं स्यात्पुरुषः कथं राष्ट्रं मृतं भवेत्।
श्राद्धं मृतं कथं वा स्यात्कथं यज्ञो मृतो भवेत्॥”
हिंदी अनुवाद:
यक्ष ने पूछा: एक पुरुष कैसे मृत होता है? एक राष्ट्र कैसे मृत होता है? श्राद्ध कैसे मृत होता है? और यज्ञ कैसे मृत होता है?
व्याख्या:
यह प्रश्न उन स्थितियों के बारे में है जिनमें मनुष्य, राष्ट्र, धार्मिक अनुष्ठान और संस्कार नष्ट या अर्थहीन हो जाते हैं।
श्लोक 8: युधिष्ठिर का उत्तर
“युधिष्ठिरः- मृतो दरिद्रः पुरुषो मृतं राष्ट्रमराजकम्।
मृतमश्रोत्रियं श्राद्धं मृतो यज्ञस्त्वदक्षिणः॥”
हिंदी अनुवाद:
युधिष्ठिर ने उत्तर दिया: दरिद्र पुरुष मृत होता है, बिना राजा का राष्ट्र मृत होता है। बिना ब्राह्मण का श्राद्ध मृत होता है, और बिना दक्षिणा का यज्ञ मृत होता है।
व्याख्या:
युधिष्ठिर ने समझाया कि निर्धनता, नेतृत्व का अभाव, धर्म के नियमों की अवहेलना, और कर्मकांडों की पूर्णता न होने पर, ये सभी चीजें अपना वास्तविक अर्थ खो देती हैं और मृतप्राय हो जाती हैं।
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