नीतिश्लोकाः
नीति का अर्थ
नीति का मतलब है समाज और व्यक्ति को उन्नति के मार्ग पर ले जाने वाले सिद्धान्त। संस्कृत के नीतिश्लोकों में यह सिद्धान्त अच्छे से व्यक्त किया गया है। नीति का उद्देश्य समाज को गिराने वाले असत् तत्वों से बचाना और समाज को ऊँचा उठाने वाले सत् तत्वों के प्रति प्रेरित करना है। विवेकशील व्यक्ति नीति के मार्ग पर चलकर स्वयं तो प्रतिष्ठित होता ही है, समाज को भी प्रतिष्ठा दिलाता है। इसलिए नीतिश्लोकों का महत्त्व है। ये श्लोक अगर कण्ठाग्र किए जाएं तो जीवन के हर मोड़ पर मार्गदर्शन करते हैं।
1. पुस्तकस्था तु या विद्या, परहस्तगतं धनम्।
कार्यकाले समुत्पन्ने, न सा विद्या न तद् धनम्।
पुस्तक में जो विद्या है, और जो धन किसी और के पास है,
जब काम का समय आता है और वह उत्पन्न नहीं होता, तो न तो वह विद्या होती है और न ही वह धन।
व्याख्या: जो विद्या (ज्ञान) केवल किताबों में है और जो धन दूसरों के पास है, उनका कोई उपयोग नहीं होता जब काम की घड़ी आती है और वे उपयोगी नहीं साबित होते।
2. न सा सभा यत्र न सन्ति वृद्धाः वृद्धाः न ते ये न वदन्ति धर्मम्।
धर्मो न सः यत्र न सत्यमस्ति सत्यं न तत् यच्छलमभ्युपैति।
जहां कोई सभा (संगठित मीटिंग) नहीं होती, वहां वृद्ध (अधिकारी या वरिष्ठ) भी नहीं होते।
जो वृद्ध धर्म की बात नहीं करते, वे वृद्ध नहीं हैं।
जहां धर्म नहीं होता, वहां सत्य भी नहीं होता।
जहां सत्य नहीं होता, वहां छल (धोखाधड़ी) प्रकट होता है।
व्याख्या: सभा में जब वरिष्ठ लोग नहीं होते या वे धर्म की बात नहीं करते, तो वहां सच्चाई और धर्म का अभाव होता है, और धोखाधड़ी की संभावना होती है।
3. गुणा गुणज्ञेषु गुणा भवन्ति:
ते निर्गुणं प्राप्य भवन्ति दोषाः।
आस्वाद्यतोयाः प्रवहन्ति नद्यः
समुद्रमासाद्य भवन्त्यपेया:।
जो गुण गुणज्ञ (गुणों को समझने वाले) में होते हैं, वे गुण होते हैं।
वे दोष बन जाते हैं जब वे निर्गुण (निर्दोष) को प्राप्त करते हैं।
जैसे नदियाँ समुद्र तक पहुँचकर मिठा पानी हो जाती हैं।
व्याख्या: गुण केवल गुणज्ञ (गुणों को पहचानने वाले) में होते हैं, लेकिन वे दोष बन सकते हैं जब वे निर्गुण (निर्दोष) की स्थिति में पहुँचते हैं। जैसे नदियाँ समुद्र में मिलकर मिठा पानी बन जाती हैं।
4. आपत्काले तु सम्प्राप्ते यत् मित्रं मित्रमेव तत्।
वृद्धिकाले तु सम्प्राप्ते अमित्रोऽपि सुहृद् भवेत्।
जब आपत्ति (कठिन समय) आता है, तो जो मित्र होता है वही मित्र होता है।
जब समृद्धि (उन्नति) होती है, तो शत्रु भी मित्र हो सकता है।
व्याख्या: संकट के समय वही सच्चा मित्र होता है जो कठिनाइयों में साथ देता है, जबकि उन्नति के समय शत्रु भी मित्र जैसा व्यवहार कर सकता है।
5. प्रियवाक्यप्रदानेन सर्वे तुष्यन्ति जन्तवः।
तस्माद् तदेव वक्तव्यं वचने का दरिद्रता।
सभी प्राणियों को प्रिय वचन (मीठे शब्द) देने से प्रसन्नता मिलती है।
इसलिए, हमेशा ऐसा ही बोलना चाहिए, शब्दों की दरिद्रता (कमी) नहीं होनी चाहिए।
व्याख्या: सभी लोगों को अच्छे शब्द कहने से खुशी मिलती है, इसलिए हमेशा अच्छे और प्रिय शब्दों का प्रयोग करना चाहिए, शब्दों की कमी नहीं होनी चाहिए।
6. वाणी रसवती यस्य यस्य श्रमवती क्रिया।
लक्ष्मीः दानवती यस्य सफलं तस्य जीवितम्।
जिसकी वाणी (भाषा) रसयुक्त (मिठी और आकर्षक) होती है और क्रिया (काम) श्रमशील होती है।
वह व्यक्ति धनवान और दानशील होता है, और उसका जीवन सफल होता है।
व्याख्या: जो व्यक्ति मीठी भाषा बोलता है और मेहनत करता है, उसके पास धन और दान करने की क्षमता होती है, और उसका जीवन सफल होता है।
7. विपदि धैर्यमथाभ्युदये क्षमा
सदसि वाक्पटुता युधि विक्रमः।
यशसि चाभिरुचिर्व्यसनं श्रुतौ
प्रकृतिसिद्धमिदं हि महात्मनाम्।
कठिनाइयों में धैर्य, समृद्धि में क्षमा,
सभा में वाक्पटुता (बातों की दक्षता) और युद्ध में वीरता।
यश (सन्मान) और रुचि (प्रवृत्ति) तथा विपत्ति में सहनशीलता,
ये सभी गुण महात्माओं की स्वाभाविक विशेषताएँ हैं।
व्याख्या: महात्मा या महान लोग संकट में धैर्य, समृद्धि में क्षमा, सभा में बातों की दक्षता, और युद्ध में वीरता दिखाते हैं। उनके पास यश, रुचि, और विपत्तियों में सहनशीलता होती है।
8. दुर्जनेन समं वैरं प्रीतिं चापि न कारयेत्।
उष्णो दहति चाङ्गारः शीतः कृष्णायते करम्।
दुष्ट (खराब) व्यक्ति के साथ वैर (दुश्मनी) और प्रेम (स्नेह) भी नहीं करना चाहिए।
गर्म अंगार (कोयला) जलाता है और ठंडा कर सर्दी लाता है।
व्याख्या: बुरे लोगों के साथ न तो दुश्मनी करनी चाहिए और न ही दोस्ती, क्योंकि वे दोनों स्थिति को खराब कर सकते हैं। जैसे गर्म अंगार जलाता है और ठंडा कर सर्दी लाता है।
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