कारक और विभक्ति
1. कारक का महत्त्व:
संस्कृत व्याकरण में “कारक” और “विभक्ति” का बहुत महत्त्व है। जब हम किसी संस्कृत शब्द को दूसरे शब्द के साथ जोड़ते हैं, तो यह प्रश्न उठता है कि उनके बीच सम्बन्ध हो सकता है या नहीं।
2. क्रिया और कारक:
वाक्य में क्रिया का प्रमुख स्थान होता है। क्रिया के सम्पन्न होने के लिए कई साधनों की आवश्यकता होती है, जिन्हें “कारक” कहा जाता है।
3. कारकों के प्रकार:
संस्कृत में छह प्रकार के कारक होते हैं:
- कर्त्ता: जो क्रिया को स्वतंत्र रूप से सम्पन्न करता है। जैसे, “बालकः धावति” (बालक दौड़ता है)।
- कर्म: कर्ता अपनी क्रिया से जिस वस्तु को प्राप्त करना चाहता है। जैसे, “रामः ओदनं खादति” (राम चावल खाता है)।
- करण: वह साधन जो क्रिया के निष्पादन में सबसे अधिक सहायक होता है। जैसे, “कलमेन लिखति” (कलम से लिखता है)।
- सम्प्रदान: वह व्यक्ति या वस्तु जिसे कर्ता क्रिया के द्वारा प्रभावित करता है। जैसे, “शिष्याय उपदेशं ददाति” (शिष्य को उपदेश देता है)।
- अपादान: वह स्थान या वस्तु जिससे कोई वस्तु अलग हो रही हो। जैसे, “वृक्षात् पतति” (वृक्ष से गिरता है)।
- अधिकरण: वह आधार जिस पर क्रिया की जाती है। जैसे, “वृक्षे वानरः तिष्ठति” (वानर वृक्ष पर बैठा है)।
4. विभक्ति का उपयोग:
संस्कृत में कारक के अनुसार विभक्ति का उपयोग होता है। जैसे:
- कर्त्ता के लिए प्रथमा विभक्ति।
- कर्म के लिए द्वितीया विभक्ति।
- करण के लिए तृतीया विभक्ति।
- सम्प्रदान के लिए चतुर्थी विभक्ति।
- अपादान के लिए पञ्चमी विभक्ति।
- अधिकरण के लिए सप्तमी विभक्ति।
5. कुछ प्रमुख सूत्र:
- कर्मणि द्वितीया: क्रिया से जुड़ा हुआ कर्म सामान्य रूप से द्वितीया विभक्ति लेता है।
- साधकतमं करणम्: क्रिया के निष्पादन में जिसका सबसे अधिक उपयोग हो, वह करण कहलाता है और तृतीया विभक्ति लेता है।
- सहयुक्तेऽप्रधाने: जब सह या उसके अर्थ वाले शब्द का उपयोग हो, तो अप्रधान शब्द से तृतीया विभक्ति लगती है। जैसे, “सीतया सह रामः गच्छति” (सीता के साथ राम जाता है)।
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