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प्रश्न 1: मौर्य साम्राज्य के पतन के बाद भारत में किन प्रमुख वंशों का उदय हुआ, और उनकी स्थापना कैसे हुई?
उत्तर: मौर्य साम्राज्य के पतन के बाद मगध क्षेत्र में शुंग वंश का उदय हुआ, जिसका संस्थापक पुष्यमित्र शुंग था। शुंग वंश ने ब्राह्मण धर्म को पुनर्स्थापित किया और यज्ञ और बलि की प्रथा को बढ़ावा दिया। इसके बाद भारत पर विदेशी आक्रमणों का दौर शुरू हुआ, जिसमें प्रमुख वंशों में बैक्ट्रिया के यूनानी शासक, शक, और कुषाण शामिल थे। इन विदेशी आक्रमणकारियों ने भारत में अपनी सत्ता स्थापित की और धीरे-धीरे भारतीय संस्कृति में लीन हो गए। इन वंशों ने भारत की सांस्कृतिक और धार्मिक धारा को प्रभावित किया और उसे एक नया रूप दिया।
प्रश्न 2: बैक्ट्रिया के यूनानी शासक कौन थे, और उन्होंने भारतीय संस्कृति पर क्या प्रभाव डाला?
उत्तर: बैक्ट्रिया के यूनानी शासक, जिन्हें ‘इंडोग्रीक’ के नाम से जाना जाता है, ने मौर्य साम्राज्य के पतन के बाद भारत में अपनी सत्ता स्थापित की। इनमें सबसे प्रसिद्ध यूनानी शासक मिनाण्डर था, जिसे बौद्ध साहित्य में ‘मिलिन्द’ के नाम से जाना जाता है। मिनाण्डर बौद्ध धर्म का अनुयायी बन गया था और उसकी राजधानी साकल (वर्तमान सियालकोट) शिक्षा का प्रमुख केंद्र था। यूनानी शासकों के प्रभाव से भारत में चिकित्सा, विज्ञान, ज्योतिष विद्या और सिक्के बनाने की कला में महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए। हालांकि, धार्मिक और दार्शनिक क्षेत्र में भारतीय प्रभाव यूनानी शासकों पर अधिक पड़ा, जिससे भारत और यूनान के बीच सांस्कृतिक आदान-प्रदान हुआ।
प्रश्न 3: शक शासकों का उदय कैसे हुआ, और उनके शासनकाल की विशेषताएँ क्या थीं?
उत्तर: शक शासक, जिन्हें ‘सीथियन’ भी कहा जाता है, मौर्य साम्राज्य के पतन के बाद भारत में उभरे। ये मूल रूप से मध्य एशिया के निवासी थे, जिन्होंने उत्तरी भारत के भागों पर शासन किया। ये शासक ‘क्षत्रप’ कहलाते थे और कई शाखाओं में विभाजित थे। इनमें उज्जैन के क्षत्रप सबसे महत्वपूर्ण थे। रूद्रदामन, जो उज्जैन का एक प्रमुख क्षत्रप था, अपने जूनागढ़ अभिलेख के लिए प्रसिद्ध है, जिसमें दक्षिण भारत के सातवाहन और कुषाणों के साथ संघर्ष की जानकारी मिलती है। शक शासकों के शासनकाल में भारतीय कला, स्थापत्य, और संस्कृति पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ा, और उन्होंने भारतीय धर्मों को भी अपनाया।
प्रश्न 4: कुषाण वंश के शासकों में सबसे महत्वपूर्ण कौन था, और उसने भारत पर किस प्रकार शासन किया?
उत्तर: कुषाण वंश के सबसे महत्वपूर्ण शासक कनिष्क थे। कनिष्क ने मौर्य साम्राज्य के बाद भारत में पहली बार एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की। उसने बैक्ट्रिया, पार्थिया, और अन्य क्षेत्रों को अपने साम्राज्य में शामिल किया। कनिष्क ने मगध पर आक्रमण कर प्रसिद्ध विद्वान अश्वघोष को अपनी राजधानी पुरुषपुर (पेशावर) ले आया था। उसने चीन के साथ भी युद्ध किए, जहाँ वह एक बार पराजित हुआ, लेकिन दूसरी बार विजयी हुआ। कनिष्क का शासनकाल बौद्ध धर्म के प्रचार और प्रसार के लिए प्रसिद्ध है, और उसने इस धर्म को राजकीय संरक्षण प्रदान किया। कनिष्क के समय में बौद्ध धर्म का महायान शाखा का उदय हुआ, जिसने बौद्ध धर्म को एक नया आयाम दिया।
प्रश्न 5: बौद्ध धर्म की महायान शाखा का उदय कैसे हुआ, और इसके क्या सिद्धांत थे?
उत्तर: बौद्ध धर्म की महायान शाखा का उदय मौर्य साम्राज्य के बाद हुआ। महायान शाखा के अनुयायी महात्मा बुद्ध को एक धर्मिक उपदेशक के रूप में न देखकर भगवान के रूप में मानते थे। उन्होंने ‘बोधिसत्व’ का आदर्श प्रस्तुत किया, जिसके अनुसार बुद्ध की मूर्तियां बनाकर उनकी पूजा की जाने लगी। महायान बौद्धधर्म में भक्ति की अवधारणा का विकास हुआ, जिससे बौद्ध धर्म में भक्ति और पूजा का प्रचलन बढ़ा। इस शाखा ने बौद्ध धर्म को अधिक सुलभ और लोक प्रिय बना दिया, जिससे इसकी व्यापकता और प्रभाव क्षेत्र में वृद्धि हुई।
प्रश्न 6: मौर्योत्तर काल में कला और स्थापत्य के क्षेत्र में कौन-कौन सी शैलियाँ विकसित हुईं, और उनकी विशेषताएँ क्या थीं?
उत्तर: मौर्योत्तर काल में कला और स्थापत्य के क्षेत्र में शुंग शैली, गांधार शैली, मथुरा शैली, और अमरावती शैली जैसी विशिष्ट शैलियाँ विकसित हुईं।
i) शुंग शैली: इसमें स्तूप के चारों ओर ऊँची चहारदीवारी बनायी जाती थी और चार तोरण द्वार लगाए जाते थे, जिन्हें जातक कथाओं और बौद्ध चिह्नों से सजाया जाता था।
ii) गांधार शैली: यूनानी कला के प्रभाव से विकसित हुई इस शैली में बुद्ध की मूर्तियां बनायी जाती थीं, और इस शैली को ‘इण्डो-ग्रीक शैली’ भी कहा जाता है।
iii) मथुरा शैली: इस शैली में बुद्ध की मूर्तियों के निर्माण में स्पष्ट रूप से भारतीय सोच का प्रदर्शन होता था। इसमें स्थानीय रूप से उपलब्ध सुन्दर लाल बलुआ पत्थर का उपयोग होता था।
iv) अमरावती शैली: इसमें संगमरमर की पट्टिकाओं पर बुद्ध के जीवन से संबंधित दृश्यों का चित्रण किया जाता था। इस शैली में पशुओं और पुष्पों का भी चित्रण होता था, और यह कला विदेशी प्रभाव से पूर्ण रूप से मुक्त थी।
प्रश्न 7: विदेशी आक्रमणों के बावजूद बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार कैसे हुआ और किन क्षेत्रों में यह धर्म फैलाया गया?
उत्तर: विदेशी आक्रमणों के बावजूद बौद्ध धर्म का व्यापक प्रचार-प्रसार हुआ। कनिष्क जैसे शासकों ने बौद्ध धर्म को राजकीय संरक्षण दिया, जिससे इस धर्म का प्रभाव और भी बढ़ गया। व्यापारिक मार्गों के माध्यम से बौद्ध धर्म मध्य एशिया, चीन, श्रीलंका, और बर्मा (म्यानमार) जैसे देशों में फैला। व्यापारी और धर्म प्रचारक इन स्थानों पर गए और बौद्ध मठों की स्थापना की। इन मठों में बौद्ध धर्म ग्रंथों का अध्ययन होता था। व्यापारियों द्वारा अनुदानित बौद्ध विहार भी बने, जो धर्म के प्रसार का केंद्र बने। इस काल में बौद्ध धर्म की महायान शाखा का उदय हुआ, जिसने इसे और भी लोकप्रिय बनाया।
प्रश्न 8: मौर्योत्तर काल में भारतीय सभ्यता और संस्कृति का प्रसार किन-किन देशों में हुआ और किन माध्यमों से यह संभव हुआ?
उत्तर: मौर्योत्तर काल में भारतीय सभ्यता और संस्कृति का प्रसार दक्षिण-पूर्व एशिया, मध्य एशिया, और चीन जैसे देशों में हुआ। यह प्रसार मुख्यतः धार्मिक और व्यापारिक माध्यमों से संभव हुआ।
i) धार्मिक माध्यम: बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार के साथ, भारत का संबंध श्रीलंका, बर्मा (म्यानमार), चीन, और मध्य एशिया के साथ बना। इन क्षेत्रों में बौद्ध मठों और मंदिरों की स्थापना हुई, और भारतीय कला और स्थापत्य का भी प्रसार हुआ।
ii) व्यापारिक माध्यम: व्यापार के माध्यम से भारतीय व्यापारियों ने कम्बोडिया, इन्डोनेशिया, और थाइलैंड जैसे देशों में अपने व्यापारिक केंद्र स्थापित किए। इन व्यापारिक मार्गों के माध्यम से भारतीय संस्कृति, कला, और धर्म का प्रसार हुआ।
प्रश्न 9: कनिष्क के शासनकाल में रेशम मार्ग का क्या महत्व था और इसका भारतीय व्यापार पर क्या प्रभाव पड़ा?
उत्तर: कनिष्क के शासनकाल में रेशम मार्ग का अत्यधिक महत्व था। यह मार्ग रोम और चीन के बीच रेशम के व्यापार के लिए मुख्य मार्ग था। कुषाण साम्राज्य का इस मार्ग पर नियंत्रण था, जिसके कारण भारत का व्यावसायिक संपर्क पश्चिम एशिया और यूरोप के देशों के साथ हुआ। इस व्यापारिक मार्ग पर नियंत्रण के कारण भारत में विदेशी वस्त्र, कला, और तकनीक का आगमन हुआ, जिससे भारतीय व्यापार और अर्थव्यवस्था को बढ़ावा मिला। रेशम मार्ग ने भारत को एक महत्वपूर्ण व्यापारिक केंद्र बना दिया और इसे वैश्विक व्यापार का हिस्सा बना दिया।
प्रश्न 10: मौर्योत्तर काल में विदेशी शासकों के भारतीय संस्कृति में समायोजन की प्रक्रिया कैसी थी और इसके परिणामस्वरूप क्या परिवर्तन हुए?
उत्तर: मौर्योत्तर काल में विदेशी शासकों का भारतीय संस्कृति में समायोजन
मौर्योत्तर काल में विदेशी शासकों का भारतीय संस्कृति में समायोजन एक धीमी और सतत प्रक्रिया थी, जिसके परिणामस्वरूप कई महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए।
i) सांस्कृतिक समायोजन: विदेशी शासक जैसे यूनानी, शक, और कुषाण धीरे-धीरे भारतीय संस्कृति, धर्म, और परंपराओं में रच-बस गए। उन्होंने भारतीय कला, भाषा, और धर्म को अपनाया। उदाहरण के लिए, यूनानी शासकों ने अपने सिक्कों पर बौद्ध चिह्न अंकित किए, और कुषाण शासकों ने बौद्ध धर्म को संरक्षण दिया। इस समायोजन से भारतीय संस्कृति में यूनानी, ईरानी, और मध्य एशियाई तत्वों का समावेश हुआ, जिससे भारतीय कला, स्थापत्य, और धर्म में नये आयाम जुड़ गए।
ii) धार्मिक समायोजन: विदेशी शासकों ने स्थानीय धार्मिक परंपराओं को अपनाकर खुद को भारतीय समाज का हिस्सा बनाया। उदाहरण के लिए, कनिष्क ने बौद्ध धर्म को अपनाया और उसे अपने साम्राज्य में फैलाया। इससे बौद्ध धर्म को नई दिशा मिली, और महायान शाखा का विकास हुआ। इसके अलावा, शुंग शासकों ने ब्राह्मण धर्म को पुनर्स्थापित किया, जिससे यज्ञ और बलि की प्रथाओं का पुनर्जीवन हुआ।
iii) सामाजिक और राजनीतिक समायोजन: विदेशी शासकों ने भारतीय समाज और राजनीतिक व्यवस्था में खुद को समायोजित किया। उन्होंने भारतीय उपाधियों और पदवियों को अपनाया और स्थानीय अधिकारियों के साथ समन्वय स्थापित किया। इससे उनकी सत्ता सुदृढ़ हुई और वे भारतीय समाज में घुलमिल गए। इस समायोजन के परिणामस्वरूप भारतीय समाज में एक नई बहुसांस्कृतिक पहचान विकसित हुई, जिसमें स्थानीय और विदेशी तत्वों का संगम हुआ।
प्रश्न 11: मौर्योत्तर काल में भारतीय स्थापत्य और मूर्तिकला की कौन-कौन सी शैलियाँ विकसित हुईं, और उनका महत्व क्या था?
उत्तर: मौर्योत्तर काल में भारतीय स्थापत्य और मूर्तिकला की कई महत्वपूर्ण शैलियाँ विकसित हुईं, जिनमें शुंग शैली, गांधार शैली, मथुरा शैली, और अमरावती शैली प्रमुख थीं।
i) शुंग शैली: शुंग शैली में स्तूप के चारों ओर ऊँची चहारदीवारी बनायी जाती थी और चार तोरण द्वार लगाए जाते थे। इस शैली में जातक कथाओं, बौद्ध चिह्नों, नाग, और अप्सरा की मूर्तियों का चित्रण किया जाता था। भारहुत और सांची के स्तूप इस शैली के उत्कृष्ट उदाहरण हैं।
ii) गांधार शैली: गांधार शैली पर यूनानी और ईरानी कला का प्रभाव था। इसमें बुद्ध की मूर्तियों का निर्माण हुआ, जिसमें यूनानी प्रभाव स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। इस शैली में बुद्ध की मूर्तियाँ लाहौर और पेशावर के संग्रहालयों में सुरक्षित हैं, और यह शैली भारत के बाहर भी लोकप्रिय हुई।
iii) मथुरा शैली: मथुरा शैली में स्थानीय रूप से उपलब्ध लाल बलुआ पत्थर का उपयोग होता था। इस शैली में बुद्ध, जैन, और हिन्दू देवताओं की मूर्तियाँ बनायी जाती थीं। इस शैली में निर्मित कनिष्क की सिर रहित मूर्ति कला की उच्च कोटि की मानी जाती है।
iv) अमरावती शैली: अमरावती शैली में संगमरमर की पट्टिकाओं पर बुद्ध के जीवन से संबंधित दृश्यों का चित्रण किया जाता था। इस शैली में पशुओं और पुष्पों का भी चित्रण होता था, और यह पूरी तरह से विदेशी प्रभाव से मुक्त थी। इस शैली के उदाहरण आंध्र प्रदेश के अमरावती क्षेत्र में पाए जाते हैं।
इन शैलियों का महत्व इस बात में निहित है कि उन्होंने भारतीय कला को एक नई दिशा दी और उसे अधिक जीवंत और अभिव्यक्तिपूर्ण बनाया। इन शैलियों ने भारतीय स्थापत्य और मूर्तिकला को समृद्ध किया और उन्हें एक वैश्विक पहचान दिलाई।
प्रश्न 12: महायान बौद्धधर्म के विकास का बौद्ध धर्म और भारतीय समाज पर क्या प्रभाव पड़ा?
उत्तर: महायान बौद्धधर्म के विकास का बौद्ध धर्म और भारतीय समाज पर गहरा प्रभाव पड़ा। महायान शाखा के उदय ने बौद्ध धर्म को एक नया आयाम दिया, जिसमें भक्ति और पूजा का महत्व बढ़ गया। बुद्ध को भगवान के रूप में मान्यता दी गई, और उनकी मूर्तियों की पूजा शुरू हुई। इससे बौद्ध धर्म अधिक सुलभ और लोक प्रिय हो गया, और इसकी व्यापकता में वृद्धि हुई।
महायान बौद्धधर्म ने भारतीय समाज में धार्मिक सहिष्णुता और विविधता को बढ़ावा दिया। इसके अनुयायियों ने बोधिसत्व के आदर्श को अपनाया, जो करुणा और सहानुभूति पर आधारित था। इससे भारतीय समाज में मानवीयता और नैतिकता की भावना मजबूत हुई। इसके अलावा, महायान बौद्धधर्म ने कला, स्थापत्य, और साहित्य के विकास में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जिससे भारतीय संस्कृति और समाज को समृद्धि मिली।
प्रश्न 13: मौर्योत्तर काल में भारत और एशिया के अन्य देशों के बीच सांस्कृतिक और व्यापारिक संबंध कैसे विकसित हुए?
उत्तर: मौर्योत्तर काल में भारत और एशिया के अन्य देशों के बीच सांस्कृतिक और व्यापारिक संबंध मुख्य रूप से बौद्ध धर्म के प्रचार और व्यापारिक मार्गों के माध्यम से विकसित हुए।
i) सांस्कृतिक संबंध: बौद्ध धर्म के प्रचारकों ने श्रीलंका, बर्मा (म्यानमार), चीन, और मध्य एशिया जैसे देशों में धर्म का प्रसार किया। इन देशों में बौद्ध मठों और मंदिरों की स्थापना हुई, और भारतीय कला और स्थापत्य का प्रसार हुआ। इसने एशिया के विभिन्न देशों के बीच सांस्कृतिक आदान-प्रदान को बढ़ावा दिया।
ii) व्यापारिक संबंध: व्यापारिक मार्गों के माध्यम से भारत का संपर्क कम्बोडिया, इन्डोनेशिया, थाइलैंड, और मध्य एशिया के साथ हुआ। रेशम मार्ग पर कुषाण साम्राज्य का नियंत्रण था, जिसके कारण भारत और चीन के बीच व्यापारिक संबंध विकसित हुए। व्यापारिक गतिविधियों के कारण भारतीय वस्त्र, कला, और तकनीक का प्रसार हुआ, और भारतीय व्यापारियों ने एशिया के विभिन्न हिस्सों में व्यापारिक केंद्र स्थापित किए।
इन संबंधों ने भारत और एशिया के अन्य देशों के बीच घनिष्ठता और सहयोग को बढ़ावा दिया, जिससे सांस्कृतिक और आर्थिक समृद्धि प्राप्त हुई। इसने भारतीय सभ्यता को एक वैश्विक पहचान दिलाई और उसे एक सांस्कृतिक और आर्थिक शक्ति के रूप में स्थापित किया।
प्रश्न 14: विदेशी शासकों द्वारा बौद्ध धर्म के संरक्षण का क्या कारण था, और इसका उनके शासन पर क्या प्रभाव पड़ा?
उत्तर: विदेशी शासकों द्वारा बौद्ध धर्म के संरक्षण का मुख्य कारण था इस धर्म की सहिष्णुता, करुणा, और मानवीय मूल्यों पर आधारित सिद्धांत, जो उन्हें भारतीय समाज में स्वीकार्यता दिलाने में मददगार साबित हुआ।
i) शासन पर प्रभाव: बौद्ध धर्म के संरक्षण ने विदेशी शासकों को भारतीय समाज में एक सम्मानित स्थान दिलाया। इससे वे भारतीय समाज के विभिन्न वर्गों में अपनी पहचान बना सके। बौद्ध धर्म के प्रचार और प्रसार ने उनके शासन को एक नैतिक और धार्मिक आधार प्रदान किया, जिससे उनके राज्य में शांति और स्थायित्व कायम रहा। इसके अलावा, बौद्ध धर्म के संरक्षण ने विदेशी शासकों को भारतीय धर्म और संस्कृति के साथ घुलने-मिलने में मदद की, जिससे उनका शासन सुदृढ़ हुआ।
ii) धार्मिक संरक्षण का महत्व: बौद्ध धर्म के संरक्षण के माध्यम से विदेशी शासकों ने धार्मिक सहिष्णुता और बहुसंस्कृतिवाद को बढ़ावा दिया। उन्होंने बौद्ध मठों और विहारों को अनुदान देकर बौद्ध धर्म के विकास में योगदान दिया। इससे न केवल उनके शासनकाल में धर्म का प्रसार हुआ, बल्कि भारतीय संस्कृति और धर्म का विदेशों में भी प्रचार-प्रसार हुआ।
इन प्रयासों से उनके शासन को वैधता मिली और उन्हें भारतीय समाज में अधिक स्वीकार्यता प्राप्त हुई, जिससे उनका शासन लंबे समय तक चल सका।
प्रश्न 15: शुंग वंश के उदय का भारतीय समाज और धर्म पर क्या प्रभाव पड़ा?
उत्तर: शुंग वंश के उदय का भारतीय समाज और धर्म पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ा। पुष्यमित्र शुंग ने मौर्य साम्राज्य के पतन के बाद ब्राह्मण धर्म को पुनर्स्थापित किया और यज्ञ और बलि की प्रथाओं को बढ़ावा दिया। इसके साथ ही, त्रिदेव ब्रह्मा, विष्णु, और महेश की धारणा को बलवती किया गया। शुंग वंश ने ब्राह्मण धर्म के पुनरुत्थान में अहम भूमिका निभाई, जिससे यज्ञ और बलि की प्रथाओं का विकास हुआ। इस काल में ब्राह्मण धर्म की श्रेष्ठता को पुनः स्थापित किया गया, जिससे समाज में धार्मिक और सामाजिक संरचनाओं में परिवर्तन आया। शुंग वंश के शासनकाल ने भारतीय समाज को पुनः धार्मिक परंपराओं और संस्कारों की ओर लौटने के लिए प्रेरित किया।
प्रश्न 16: कनिष्क की राजधानी पुरुषपुर का बौद्ध धर्म के विकास में क्या योगदान था?
उत्तर: कनिष्क की राजधानी पुरुषपुर (वर्तमान पेशावर) का बौद्ध धर्म के विकास में महत्वपूर्ण योगदान था। कनिष्क ने पुरुषपुर को अपने साम्राज्य की राजधानी बनाकर इसे बौद्ध धर्म का एक प्रमुख केंद्र बनाया। यहाँ पर कई विद्वानों और बौद्ध भिक्षुओं का निवास था, जिनमें अश्वघोष, नागार्जुन, वसुमित्र आदि प्रमुख थे। कनिष्क के संरक्षण में पुरुषपुर में बौद्ध धर्म का व्यापक प्रचार-प्रसार हुआ और यह शहर बौद्ध अध्ययन और शिक्षण का प्रमुख केंद्र बन गया। कनिष्क के शासनकाल में महायान बौद्ध धर्म का विकास हुआ, और पुरुषपुर इस धार्मिक आंदोलन का केंद्र बन गया, जिससे बौद्ध धर्म का प्रभाव पूरे एशिया में फैल गया।
प्रश्न 17: गांधार शैली का भारतीय मूर्तिकला पर क्या प्रभाव था, और इसके प्रमुख लक्षण क्या थे?
उत्तर: गांधार शैली का भारतीय मूर्तिकला पर गहरा प्रभाव था। यह शैली यूनानी और ईरानी कला से प्रभावित थी और मुख्य रूप से पश्चिमोत्तर भारत में विकसित हुई। गांधार शैली के प्रमुख लक्षणों में बुद्ध की मूर्तियों का यथार्थवादी चित्रण, ग्रीक कला से प्रेरित विवरण, और ईरानी पोशाक का उपयोग शामिल थे। इस शैली में मूर्तियों के चेहरे, वस्त्र, और शरीर के अन्य हिस्सों का अत्यधिक यथार्थवादी और सजीव चित्रण किया गया है। गांधार शैली ने भारतीय मूर्तिकला में एक नई धारा को जन्म दिया, जिसमें पश्चिमी कला के तत्वों का सम्मिश्रण देखा गया। इस शैली की मूर्तियों का व्यापक प्रभाव भारत के बाहर, विशेषकर मध्य एशिया और चीन में भी पड़ा।
प्रश्न 18: मथुरा शैली की विशेषताएँ क्या थीं, और यह भारतीय मूर्तिकला में कैसे अलग थी?
उत्तर: मथुरा शैली की विशेषताएँ भारतीय मूर्तिकला में इसकी विशिष्ट पहचान बनाती हैं। यह शैली कुषाण काल में मथुरा में विकसित हुई और इसमें स्थानीय रूप से उपलब्ध लाल बलुआ पत्थर का उपयोग होता था। मथुरा शैली में बुद्ध, जैन, और हिन्दू देवताओं की मूर्तियों का निर्माण किया गया, जिनमें भारतीय परंपराओं का स्पष्ट प्रभाव दिखता था।
इस शैली की प्रमुख विशेषताओं में मूर्तियों की सीधी खड़ी मुद्रा, चेहरे पर सौम्यता और शांति का भाव, और सजावटी तत्वों का संयोजन शामिल था। मथुरा शैली की मूर्तियों में भारतीय दृष्टिकोण और सांस्कृतिक धरोहर का स्पष्ट प्रदर्शन होता था, जो यूनानी और ईरानी प्रभावों से मुक्त था। यह शैली भारतीय मूर्तिकला में आत्मनिर्भरता और सांस्कृतिक धरोहर के प्रति सम्मान का प्रतीक बनी।
प्रश्न 19: अमरावती शैली में विकसित स्थापत्य और मूर्तिकला के प्रमुख लक्षण क्या थे, और इसका महत्व क्या है?
उत्तर: अमरावती शैली में विकसित स्थापत्य और मूर्तिकला की प्रमुख विशेषताएँ इसकी विस्तृत नक्काशी और संगमरमर की पट्टिकाओं पर उकेरे गए दृश्य हैं। अमरावती (आंध्र प्रदेश) से प्राप्त स्तूप और मूर्तियाँ इस शैली के उत्कृष्ट उदाहरण हैं।
i) प्रमुख लक्षण: अमरावती शैली में संगमरमर की पट्टिकाओं पर बुद्ध के जीवन से संबंधित दृश्यों का चित्रण किया जाता था। इनमें पशुओं और पुष्पों का भी सुंदर चित्रण होता था। इस शैली की मूर्तियों में गहरी नक्काशी और बारीक विवरण देखने को मिलता है, जो उन्हें अत्यधिक सजीव और अभिव्यक्तिपूर्ण बनाता है।
ii) महत्व: अमरावती शैली भारतीय कला की विशुद्धता का प्रतिनिधित्व करती है और यह विदेशी प्रभावों से मुक्त थी। इस शैली ने भारतीय स्थापत्य और मूर्तिकला को एक नई दिशा दी और इसे दक्षिण भारत में व्यापक रूप से अपनाया गया। अमरावती शैली भारतीय कला के स्वर्णिम काल का प्रतीक है और इसका प्रभाव अन्य क्षेत्रों की कला पर भी पड़ा।
प्रश्न 20: मौर्योत्तर काल में भारत के सांस्कृतिक और व्यापारिक संबंध किन क्षेत्रों के साथ स्थापित हुए, और इसका क्या महत्व था?
उत्तर: मौर्योत्तर काल में भारत के सांस्कृतिक और व्यापारिक संबंध दक्षिण-पूर्व एशिया, मध्य एशिया, चीन, और श्रीलंका जैसे क्षेत्रों के साथ स्थापित हुए।
i) सांस्कृतिक संबंध: बौद्ध धर्म के प्रचार के माध्यम से भारत का संबंध श्रीलंका, बर्मा (म्यानमार), चीन, और मध्य एशिया के साथ बना। इन क्षेत्रों में बौद्ध धर्म के प्रसार के साथ भारतीय कला, स्थापत्य, और धर्म का भी प्रसार हुआ।
ii) व्यापारिक संबंध: व्यापारिक मार्गों के माध्यम से भारत का संपर्क कम्बोडिया, इन्डोनेशिया, थाइलैंड, और मध्य एशिया के साथ हुआ। रेशम मार्ग पर कुषाण साम्राज्य का नियंत्रण था, जिसके कारण भारत और चीन के बीच व्यापारिक संबंध मजबूत हुए। इन व्यापारिक संबंधों ने भारतीय वस्त्र, मसालों, और तकनीकों का प्रसार किया, जिससे भारतीय अर्थव्यवस्था को बढ़ावा मिला।
iii) महत्व: इन सांस्कृतिक और व्यापारिक संबंधों ने भारत को एक महत्वपूर्ण अंतरराष्ट्रीय केंद्र बनाया। भारतीय संस्कृति, धर्म, और कला का प्रभाव पूरे एशिया में फैला, जिससे भारत को वैश्विक पहचान मिली। यह काल भारतीय सभ्यता के प्रसार और विकास का महत्वपूर्ण युग था, जिसमें भारत एक सांस्कृतिक और आर्थिक शक्ति के रूप में उभरा।
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