जैव प्रक्रम- वे सारी क्रियाएँ जिनके द्वारा जीवों का अनुरक्षण होता है, जैव प्रक्रम कहलाती हैं।
पोषण- वह विधि जिससे जीव पोषक तत्वों को ग्रहण कर उनका उपयोग करते हैं, पोषण कहलाता है।
पोषण की विधियाँ
जीवों में पोषण मुख्यतः दो विधियों द्वारा होता हैं।
स्वपोषण
परपोषण
स्वपोषण- पोषण की वह प्रक्रिया जिसमें जीव अपने भोजन के लिए अन्य जीवों पर निर्भर न रहकर अपना भोजन स्वयं संश्लेषित करते हैं, स्वपोषी कहलाते हैं।
परपोषण- परपोषण वह प्रक्रिया है जिसमें जीव अपना भोजन स्वयं संश्लेषित न कर किसी-न-किसी रूप में अन्य स्त्रोतों से प्राप्त करते हैं।
परपोषण के प्रकार-
परपोषण मुख्य रूप से तीन प्रकार के होते हैं-
1. मृतजीवी पोषण- पोषण की वह विधि जिसमें जीव अपने भोजन के लिए मृत जंतुओं और पौधों के शरीर से, अपने शरीर की सतह से घुलित कार्बनिक पदार्थों के रूप में अवशोषित करते हैं। मृतजीवी पोषण कहलाते हैं। जैसे- कवक बैक्टीरिया तथा कुछ प्रोटोजोआ।
2. परजीवी पोषण- पोषण की वह विधि जिसमें जीव अपने पोषण के लिए दूसरे प्राणी के संपर्क में, स्थायी या अस्थायी रूप से रहकर, उससे अपना भोजन प्राप्त करते हैं। परजीवी पोषण कहलाते हैं। जैसे-कवक, जीवाणु, गोलकृमि, हुकवर्म, मलेरिया परजीवी आदि।
3. प्राणिसम पोषण- वैसा पोषण जिसमें प्राणी अपना भोजन ठोस या तरल के रूप में जंतुओं के भोजन ग्रहण करने की विधि द्वारा ग्रहण करते हैं, प्राणी समपोषण कहलाते हैं। जैसे- अमीबा, मेढ़क, मनुष्य आदि।
प्रकाशसंश्लेषण क्या है ?
सूर्य की ऊर्जा की सहायता से प्रकाशसंश्लेषण में सरल अकार्बनिक अणु- कार्बन डाइऑक्साइड और जल का पादप-कोशिकाओं में स्थिरीकरण कार्बनिक अणु ग्लूकोज (कार्बोहाइड्रेट) में होता है।
प्रकाशसंश्लेषण के लिए आवश्यक पदार्थ-
प्रकाश संश्लेषण के लिए चार पदार्थों की आवश्यकता होती हैं- 1. पर्णहरित या क्लोरोफिल, 2. कार्बनडाइऑक्साइड, 3. जल और 4. सूर्य प्रकाश
उपापचय- सजीव के शरीर में होनेवाली सभी प्रकार की रासायनिक क्रियाएँ उपापचय कहलाती है। जैसे- अमीनो अम्ल से प्रोटीन का निर्माण होना, ग्लूकोज से ग्लाइकोजेन का निर्माण होना आदि।
अमीबा में पोषण
अमीबा एक सरल प्राणीसमपोषी जीव है। यह मृदुजलीय, एककोशीय तथा अनिश्चित आकार का प्राणी है। इसका आकार कूटपादों के बनने और बिगड़ने के कारण बदलता रहता है।
अमीबा का भोजन शैवाल के छोटे-छोटे टुकड़े, बैक्टीरिया, डायटम, अन्य छोटे एककोशिक जीव तथा मृत कार्बनिक पदार्थ के छोटे-छोटे टुकड़े इत्यादि हैं।
अमीबा में पोषण अंतर्ग्रहण, पाचन तथा बहिष्करण प्रक्रियाओं द्वारा पूर्ण होता है।
अमीबा में भोजन के अंतर्ग्रहण के लिए मुख जैसा कोई निश्चित स्थान नहीं होता है, बल्कि यह शरीर की सतह के किसी भी स्थान से हो सकता है।
अमीबा जब भोजन के बिल्कुल समीप होता है तब अमीबा भोजन के चारों ओर कूटपादों का निर्माण करता है। कूटपाद तेजी से बढ़ते हैं और भोजन को पूरी तरह घेर लेते हैं। धीरे-धीरे कूटपादों के सिरे तथा फिर पार्श्व आपस में जुड़ जाते हैं। इस तरह एक भोजन-रसधानीका निर्माण हो जाता है जिसमें भोजन के साथ जल भी होता है।
भोजन का पाचन भोजन रसधानी में ही एंजाइमों के द्वारा होता है। अपचे भोजन निकलने के लिए शरीर के किसी भाग में अस्थायी छिद्र का निर्माण होता है जिससे अपचा भोजन बाहर निकल जाता है।
मनुष्य का पाचनतंत्र
मनुष्य तथा सभी उच्च श्रेणी के जंतुओं में भोजन के पाचन के लिए विशेष अंग होते हैं जो आहारनाल कहलाते हैं।
आहारनाल- मनुष्य का आहारनाल एक कुंडलित रचना है जिसकी लंबाई करीब 8 से 10 मीटर तक की होती है। यह मुखगुहा से शुरू होकर मलद्वार तक फैली होती है।
मुखगुहा- मुखगुहा आहारनाल का पहला भाग है। मुखगुहा को बंद करने के लिए दो मांसल होंठ होते हैं। मुखगुहा में जीभ तथा दाँत होते हैं।
लार में एमीलेस नामक एंजाइम पाए जाते हैं।
ग्रासनली- मुखगुहा से लार से सना हुआ भोजन निगलद्वार के द्वारा ग्रासनली में पहुँचता है। भाजन के पहुँचते ही ग्रासनली की दिवार में तरंग की तरह संकुचन या सिकुड़न और शिथिलन या फैलाव शुरू हो जाता है। ग्रासनली में पाचन की क्रिया नहीं होती है। ग्रासनली से भोजन अमाशय में पहुँचता है।
आमाशय- यह एक चौड़ी थैली जैसी रचना है जो उदर-गुहा के बाईं ओर से शुरू होकर अनुप्रस्थ दिशा में फैली होती है।
आमाशय में प्रोटिन के अतिरिक्त भोजन के वसा का भी पाचन प्रारंभ होता है।
छोटी आँत- छोटी आँत आहारनाल का सबसे लंबा भाग है। यह बेलनाकार रचना है। छोटी आँत में ही आहारनाल की क्रिया पूर्ण होती है। मनुष्य में इसकी लंबाई लगभग 6 मीटर तथा चौड़ाई 2.5 सेंटीमीटर होती है।
यकृत- यह शरीर की सबसे बड़ी ग्रंथि है जो उदर के ऊपरी दाहिने भाग में अवस्थित है। यकृत कोशिकाओं से पिŸा का स्त्राव होता है।
पित्त के दो मुख्य कार्य है-
1. पित्त अमाशय से ग्रहणी में आए अम्लीय काइम की अम्लीयता को नष्ट कर उसे क्षारीय बना देता है ताकि अग्न्याशयी रस के एंजाइम उसपर क्रिया कर सकें।
2. पित्त के लवणों की सहायता से भोजन के वसा के विखंडन तथा पायसीकरण होता है ताकि वसा को तोड़नेवाले एंजाइम उसपर आसानी से क्रिया कर सके।
अग्न्याशय- आमाशय के ठीक नीचे तथा ग्रहणी को घेरे पीले रंग की एक ग्रंथि होती है जो अग्न्याशय कहलाती है।
बड़ी आँत- छोटी आँत आहारनाल के अगले भाग बड़ी आँत में खुलती है। बड़ी आँत दो भागों में बँटा होता है। ये भाग कोलन तथा मलाशय या रेक्टम कहलाते हैं।
श्वसन- श्वसन उन सभी प्रक्रियाओं का सम्मिलित रूप है जिनके द्वारा शरीर में ऊर्जा का उत्पादन होता है।
संपूर्ण कोशिकीय श्वसन का दो अवस्थाओं में विभाजित किया गया है-
अवायवीय श्वसन और
वायवीय श्वसन
अवायवीय श्वसन और वायवीय श्वसन में क्या अंतर है ?
अवायवीय श्वसन और वायवीय श्वसन में मुख्य अंतर निम्नलिखित है-
1. वायवीय श्वसन ऑक्सीजन की उपस्थिति में होता है जबकि अवायवीय श्वसन ऑक्सीजन की अनुपस्थिति में होता है।
2. वायवीय श्वसन का प्रथम चरण कोशिकाद्रव्य में तथा द्वितीय चरण माइटोकॉण्ड्रिया में पूरा होता है जबकि अवायवीय श्वसन की पूरी क्रिया कोशिकाद्रव्य में होती है।
3. वायवीय श्वसन में अवायवीय श्वसन की तुलना में बहुत ज्यादा ऊर्जा मुक्त होती है।
पौधों में श्वसन की क्रिया जंतुओं के श्वसन से किस प्रकार भिन्न है-
पोधों में श्वसन की क्रिया जंतुओं के श्वसन से निम्नलिखित प्रकार से भिन्न है-
पौधों के प्रत्येक भाग, अर्थात जड़, तना में अलग-अलग होता है।
जंतुओं की तरह पौधों में श्वसन गैसों का परिवहन नहीं होता है।
पौधों में जंतुओं की अपेक्षा श्वसन की गति धीमी हेती है।
जंतुओं में समान्यतः तीन प्रकार के श्वसन अंग होते हैं-
1. श्वासनली या ट्रैकिया 2. गिल्स तथा 3. फेफड़े
2. श्वासनली या ट्रैकिया- टै्रकिया द्वारा श्वसन किटों, जैसे टिड्डा तथा तिलचट्टा में होता है।
3. गिल्स- गिल्स विशेष प्रकार के श्वसन अंग हैं जो जल में घुलित ऑक्सीजन का उपयोग श्वसन के लिए करते हैं। श्वसन के लिए 4. गिल्स का होना मछलियों के विशेष लक्षण है। मछलीयों में गिल्स द्वारा श्वसन होता है।
5. फेफड़ा- वर्ग एंफीबिया (जैसे मेढ़क) में फेफड़े के अतिरिक्त त्वचा तथा मुख-ग्रसनी से भी श्वसन होता है।
रेप्टीलिया (जैसे सर्प, लिजर्ड, कछुआ तथा मगरमच्छ) तथा उच्चतम श्रेणी के वर्टिब्रेटा जैसे एवीज (पक्षी) तथा मैमेलिया (जैसे मनुष्य) में श्वसन सिर्फ फेफड़ों से होता है।
श्वसन अंग- मनुष्य में नासिका छिद्र, स्वरयंत्र या लैरिंक्स, श्वासनली या ट्रैकिया तथा फेफड़ा मिलकर श्वसन अंग कहलाते हैं।
श्वसन क्रिया- श्वसन दो क्रियाओं का सम्मिलित रूप है। पहली क्रिया में हवा नासिका से फेफड़े तक पहुँचती है जहाँ इसका ऑक्सीजन फेफड़े की दीवार में स्थित रक्त कोशिकाओं के रक्त में चला जाता है। इस क्रिया को प्रश्वास कहते हैं। इसके विपरित, दूसरी क्रिया उच्छ्वास कहलाती है जिसके अंतर्गत रक्त से फेफड़े में आया कार्बन डाइऑक्साइड बची हवा के साथ नासिका से बाहर निकल जाता है।
श्वसन की दो अवस्थाएँ प्रश्वास तथा उच्छ्वास मिलकर श्वासोच्छ्वास कहलाती है।
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