- भारत की जो मुख्य अदालतें है वे हजारों-हज़ार लंबित मुकदमों से दबी पड़ी है। तारीख पे तारीख और तारीख पे तारीख होते हुए कब 10-15 साल बीत जाता है पता ही नहीं चलता। और नतीजतन इंसाफ में बहुत ही ज्यादा देरी हो जाता है।
- इसी को बाईपास करने के लिए एवं मुख्य न्यायालय के बोझ को कम करने के लिए और त्वरित न्याय उपलब्ध कराने के लिए लोक अदालत (Lok Adalat) नामक एक फोरम का गठन किया गया।
- ये अदालतें अनौपचारिक, सस्ता और सुलभ न्याय प्राप्ति के लिए एक बेहतरीन मंच प्रदान करता है। यहाँ पर बातचीत, मध्यस्थता, कॉमन सेंस तथा वादियों की समस्यायों के प्रति मानवीय दृष्टिकोण अपनाकर विशेष रूप से प्रशिक्षित एव अनुभवी विधि अभ्यासियों द्वारा मामले निपटाए जाते हैं।
- निर्णय इस प्रकार दिये जाते है कि दोनों पक्ष उसे खुशी-खुशी स्वीकार करे। इसीलिए कहा जाता है कि लोक अदालत की कार्यवाही में कोई विजयी या पराजित नहीं होता।
लोक अदालत का अधिकार क्षेत्र:-
- ये विवाह संबंधी विवाद, आपराधिक मामले, भूमि अधिग्रहण संबंधी मामले, श्रम विवाद, कर्मचारी क्षतिपूर्ति के मामले, बैंक बसूली के मामले, पेंशन मामले, आवास मामले, वित्त संबंधी मामले, उपभोक्ता शिकायत के मामले आदि की सुनवाई कर सकता है।
- यहाँ पर दो प्रकार के मामलों की ही सुनवाई होती है
- (1) ऐसे मामले जो अदालतों में लंबित है या
- (2) ऐसे मामले जो अभी अदालतों तक नहीं पहुंचे है।
- लोक अदालतें ऐसे मामलों की सुनवाई नहीं कर सकती जो किसी न्यायालय के क्षेत्राधिकार में आता है या जिस पर सुनवाई की तारीख निर्धारित हो।
- दूसरी बात कि लोक अदालत उन मामलों की भी सुनवाई नहीं कर सकता है जो किसी कानून के तहत समाधान योग्य नहीं है। यानी कि ऐसे अपराध जिसका निपटारा मेन स्ट्रीम अदालत करता है। इसे गैर-समाधेय अपराध (Non Compoundable offence) कहा जाता है।
वैधानिक विशेषताएँ –
- 1982 में लोक अदालत गुजरात में एक प्रयोग के तौर पर शुरू किया गया था लेकिन ये विवादों को निपटाने में इतनी सफल रही कि जल्द ही अन्य राज्यों में भी इसे अपनाया गया।
- इसकी बढ़ती लोकप्रियता को देखते हुए लोगों ने इसे वैधानिक दर्जा देने की मांग कि फलस्वरूप 1987 में “वैधानिक सेवाएँ प्राधिकरण अधिनियम” द्वारा इसे वैधानिक दर्जा दिया गया। इसकी वैधानिक विशेषताएं कुछ इस प्रकार है-
वैधानिक सेवाएं प्राधिकरण अधिनियम, 1987 के अनुसार :-
1. राज्य वैधानिक सेवाएँ प्राधिकरण (SLSA) या जिला वैधानिक सेवाएँ प्राधिकरण (DLSA) या सर्वोच्च न्यायालय वैधानिक सेवाएँ प्राधिकरण (SCLSA) या फिर उच्च न्यायालय वैधानिक सेवाएँ प्राधिकरण (HCLSA) लोक अदालतों का आयोजन कर सकता है और वहाँ पर आयोजन कर सकता है जहां पर वो उपयुक्त समझता है।
2. लोक अदालत में सुनवाई करने वाले कितने सदस्य होंगे इसका निर्धारण इसका आयोजन करने वाले करते हैं। साधारणत: एक लोक अदालत में अध्यक्ष के रूप में एक न्यायिक अधिकारी तथा एक वकील व सामाजिक कार्यकर्ता सदस्यों के रूप में होते है।
3. अदालत के समक्ष लंबित किसी मामले को लोक अदालत सुनवाई के लिए लाया जा सकता है यदि:
(1) यदि दोनों पक्ष विवाद का समाधान लोक अदालत में करना चाहते हैं, या (2) कोई एक पक्ष उस मामले को लोक अदालत में भेज देने के लिए आवेदन देता है, या (3) यदि न्यायालय संतुष्ट है कि मामला लोक अदालत के संज्ञान में लाये जाने के उपयुक्त है।
4. लोक अदालतों की शक्तियों के बारे में बात करें तो, इसे वही शक्तियाँ प्राप्त होती है जो कि सिविल कोर्ट को कोड ऑफ सिविल प्रोसीजर (1908) के अंतर्गत प्राप्त होती है।
इस प्रकार लोक अदालत में चली कार्यवाही को भारतीय दंड संहिता (IPC) 1860 में निर्धारित अर्थों में अदालती कार्यवाही माना जाएगा तथा प्रत्येक लोक अदालत को आपराधिक प्रक्रिया संहिता (CrPC) (1973) के उद्देश्य से एक सिविल कोर्ट माना जाएगा।
6.लोक अदालत का फैसला = दीवानी न्यायालय का फरमान/किसी न्यायालय का आदेश
लोक अदालत का निर्णय सिविल कोर्ट के हुकुमनामे अथवा किसी भी अन्य अदालत के किसी भी आदेश की तरह मान्य होगा। लोक अदालत द्वारा दिया गया फैसला अंतिम तथा सभी पक्षों पर बध्याकारी होगा, इसका निर्णय गैर-अपीलीय होता है।
7. लोक अदालत के पास यह अधिकार होगा की वह निम्नलिखित विवादों में दोनों पक्षों के बीच समझौता कराने का निश्चय करें:
- कोई भी मामला जो किसी न्यायालय में लंबित हो, या
- कोई भी मामला जो किसी भी न्यायालय के अधिकार क्षेत्र में आता हो लोक अदालत के समक्ष नहीं लाया जाएगा।
- गैर-समाधेय अपराधों के लिए कोई अधिकार क्षेत्र नहीं प्राप्त है।
लोक अदालत के लाभ:-
1. यहाँ कोई अदालती फीस नहीं लगती और अगर किसी पक्ष द्वारा अदालती फीस का भुगतान कर दिया गया हो तो लोक अदालत में मामला निपटने के बाद राशि लौटा दी जाएगी। इसके अलावा इसमें समय भी कम लगता है और ये नियमित न्यायालयों के तकनीकी उलझनों से मुक्त होता है।
2. यहाँ सभी पक्ष अपने वकीलों के माध्यम से न्यायाधीश से सीधे संवाद कर सकते है, जो की नियमित न्यायालयों में संभव नहीं है साथ ही यहाँ सम्बद्ध पक्ष अपने मतभेदों पर खुलकर चर्चा कर सकते है जो कि विवाद सुलझाने में सहायक सिद्ध होती है।
3. यहाँ विवादों का समाधान शीघ्र, नि:शुल्क तथा सौहार्दपूर्ण ढंग से हो जाता है और यहाँ कोई विजयी या पराजित नहीं होता।
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