संविधान में निहित आदर्शों को प्रस्तावना में दर्शाया गया है, जिसे 26 नवंबर, 1949 को संविधान के साथ ही अधिनियमित किया गया था। यह तथ्य कि इसे संविधान सभा द्वारा मसौदा(draft) संविधान की पुष्टि के बाद स्वीकार किया गया था, इस दावे का समर्थन करता है कि यह संविधान के उद्देश्य और विचारधारा का प्रतिनिधित्व करता है। यह न केवल संविधान के लक्ष्यों को बताता है बल्कि संविधान की शक्ति के स्रोत की भी पहचान करता है।
“हम, भारत के लोग…” शब्दों से पता चलता है कि संविधान भारत के नागरिकों/निवासियों द्वारा बनाया गया है। इस शब्द का चयन उद्देश्यपूर्ण है, क्योंकि यह इस बात पर जोर देता है कि भारतीय संविधान, राष्ट्र को नियंत्रित करने वाले पिछले कानूनों के विपरीत, ब्रिटिश संसद द्वारा तैयार नहीं किया गया था।
संविधान के एक भाग के रूप में प्रस्तावना
संविधान का हिस्सा होने के नाते प्रस्तावना पर सुप्रीम कोर्ट में कई बार चर्चा हो चुकी है। इसे निम्नलिखित मामलों को पढ़कर समझा जा सकता है।
- बेरुबारी संघ मामला (1960): इसका उपयोग संविधान के अनुच्छेद 143(1) के तहत संदर्भ के रूप में किया गया था , जो बेरुबारी संघ से संबंधित भारत-पाकिस्तान समझौते के कार्यान्वयन और एन्क्लेवों के आदान-प्रदान पर था, जिस पर आठ न्यायाधीशों वाली पीठ द्वारा विचार करने का निर्णय लिया गया था।
- बेरुबारी मामले में न्यायालय ने कहा कि ‘प्रस्तावना निर्माताओं के दिमाग को खोलने की कुंजी है’ लेकिन इसे संविधान का हिस्सा नहीं माना जा सकता। इसलिए यह न्यायालय में लागू नहीं हो सकता।
- इस मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा प्रस्तावना में प्रयुक्त शब्दों को अस्पष्ट कहा गया था।
2. केशवानंद भारती केस(1973): इस मामले में पहली बार 13 जजों की बेंच एक रिट याचिका पर सुनवाई के लिए बैठी थी।
कोर्ट ने कहा कि:
- सर्वोच्च न्यायालय ने अपने पूर्व के फैसले को खारिज करते हुये यह घोषणा की कि संविधान की प्रस्तावना को अब संविधान का हिस्सा माना जाएगा ।
- प्रस्तावना सर्वोच्च शक्ति या किसी प्रतिबंध या निषेध का स्रोत नहीं है, लेकिन यह संविधान के कानूनों और प्रावधानों की व्याख्या में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
- अतः यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि प्रस्तावना संविधान के परिचयात्मक भाग का हिस्सा है।
- इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा की अनुच्छेद 368 के तहत मूल विशेषताओं में बदलाव किए बिना प्रस्तावना में संशोधन किए जा सकते हैं।
3. संघ सरकार बनाम भारतीय जीवन बीमा निगम(1995):
- मामले में भी सर्वोच्च न्यायालय ने एक बार फिर माना कि प्रस्तावना संविधान का अभिन्न अंग है, लेकिन भारत में न्यायालय में इसे सीधे लागू नहीं किया जा सकता।
4. एस.आर. बोम्मई केस (1994):
- एस.आर. बोम्मई केस में घोषणा की गयी कि प्रस्तावना ने संविधान की मूल संरचना का संकेत दिया है।
5. एलआईसी ऑफ इंडिया केस (1995):
- एलआईसी ऑफ इंडिया केस द्वारा प्रस्तावना को सर्वोच्च न्यायालय ने संविधान का एक अभिन्न अंग माना था।
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