- विवाह एवं पारिवारिक मामलों से संबन्धित विवादों में मध्यस्थता व बातचीत के माध्यम से हल निकालने एवं त्वरित समाधान सुनिश्चित करने के लिए 1984 में परिवार न्यायालय अधिनियम अधिनियमित किया गया।
- इसी अधिनियम के तहत परिवार न्यायालय की स्थापना की जाती है। दूसरे शब्दों में कहें तो परिवार न्यायालय एक वैधानिक संस्था है जिसका मकसद बातचीत, मध्यस्थता एवं क्षतिपूर्ति आदि के माध्यम से पारिवारिक विवादों को सुलझाना है।
परिवार न्यायालय की जरूरत क्यों पड़ी –
भारत में इतने सारे न्यायालय होने के बावजूद एक पृथक परिवार न्यायालय स्थापित करने की जरूरत इसीलिए पड़ी क्योंकि
1. कुछ महिला संगठन एवं कुछ अन्य संस्थाओं ने इसके गठन पर काफी ज़ोर दिया। उनका मानना था कि एक विशेषीकृत, सस्ता और सुलभ न्यायालय का सृजन होना चाहिए जो केवल पारिवारिक मामले ही देखेगा और पारिवारिक मामले सुलझाने में विशेषज्ञता रखेगा।
2. विधि आयोग ने अपनी 59वीं रिपोर्ट में इस बात पर ज़ोर दिया है कि परिवार संबन्धित ववादों में न्यायालय को समझौताकारी दृष्टिकोण अपनाना चाहिए और आमतौर पर उसे सामान्य सिविल प्रक्रियाओं का इस्तेमाल करने से बचना चाहिए।
लेकिन न्यायालयों द्वारा पारिवारिक वादों के समाधान के लिए मध्यस्थता या समझौताकारी उपायों का यथेष्ट (considerable) उपयोग नहीं किया गया और इन मामलों को सामान्य सिविल मामलों कि तरह ही देखा और बरता जाता रहा, इसीलिए जनहित में इस बात की आवश्यकता अनुभव कि गई पारिवारिक विवादों के समाधान के लिए परिवार न्यायालय स्थापित किए जाये।
परिवार न्यायालय की विशेषताएँ:-
पारिवारिक न्यायालय अधिनियम 1984 (Family Court Act 1984) के अनुसार परिवार न्यायालय की प्रमुख विशेषताएँ निम्नवत है:-
- यह अधिनियम राज्य सरकारों द्वारा उच्च न्यायालयों की सहमति से परिवार न्यायालयों की स्थापना का प्रावधान करता है।
- यह अधिनियम राज्य सरकारों को लिए के लिए एक लाख से अधिक जनसंख्या वाले प्रत्येक नगरों में एक परिवार न्यायालय की स्थापना के लिए बाध्य करता है।
- इस अधिनियम के अनुसार परिवार न्यायालय का क्षेत्राधिकार (Jurisdiction of Family Court) निम्नलिखित होगा –
- विवाह संबंधी मामले जैसे कि – विवाह की अमान्यता (Invalidation of marriage), न्यायिक बिलगाव, तलाक (Divorce), वैवाहिक अधिकारों की बहाली (Restoration of marital rights) पति या पत्नी की देख-रेख एवं निर्वाह भत्ता आदि।
- दंपत्ति या उनमें से एक की संपत्ति से संबन्धित मामले
- किसी व्यक्ति का अभिभावक अथवा किसी नाबालिग का संरक्षक (custodian)
- पत्नी, बच्चों एवं माता-पिता का गुजारा आदि संबंधी मामलों को शामिल करता है।
- परिवार न्यायालय के लिए यह अनिवार्य ज़िम्मेदारी है कि वह प्रथमतः किसी पारिवारिक विवाद मे संबन्धित पक्षों के बीच मेल मिलाप या समझौते का प्रयास करे। और मामले की जरूरत के हिसाब से समझौता वाले चरण में समाज कल्याण एजेंसियों तथा सलाहकारों के साथ ही चिकित्सकीय एवं कल्याण विशेषज्ञों के सहयोग का भी प्रावधान करें।
- यह प्रावधान करता है न्याय मित्र के रूप में किसी विधि विशेषज्ञ से सलाह ली जा सकती है लेकिन किसी पक्ष की तरफ से विधि अभ्यासी (Law practitioner) द्वारा प्रतिनिधित्व नहीं किया जाएगा।
- यह साक्ष्य तथा प्रक्रिया संबन्धित नियमों को सरलीकृत करने पर ज़ोर देता है और यह केवल एक अपील का अधिकार देता है जो कि उच्च न्यायालय में ही की जा सकती है। यानी कि अगर दोनों पक्षों की सहमति से समझौता या निर्णय दिया गया है तो उसके बाद कहीं और इसकी अपील नहीं की जा सकती लेकिन अगर सहमति नहीं बन पाती है तो फिर केवल उच्च न्यायालय में ही इसकी अपील की जा सकती है।
- परिवार न्यायालय के पास ये शक्ति होती है कि वे जिसे भी ठीक समझे बच्चे की कस्टडी उसे सौंप दे।
परिवार न्यायालय कैसे संचालित होती है-
- परिवार न्यायालय के पास ये शक्ति होती है कि संचालन संबंधी वे अपना प्रावधान बना सके। इन्हे गवाह के लंबे मौखिक बयान को दर्ज करने की आवश्यकता नहीं होती है।
- परिवार न्यायालय किसी भी दस्तावेज या बयान को प्राप्त कर सकता है, भले ही वह भारतीय साक्ष्य अधिनियम 1872 के तहत स्वीकार्य न हो।
- परिवार न्यायालय के आदेशों का प्रवर्तन (Enforcement) नागरिक प्रक्रिया संहिता (Code of Civil Procedure), 1908 के तहत होता है।
- वर्तमान मे देश भर में 535 परिवार न्यायालय संचालित है।
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