लोक सभा के लिए चुनाव प्रणाली लोकसभा के सदस्यों का चुनाव निम्नलिखित सिद्धांतों के आधार पर होता है:
प्रादेशिक निर्वाचन क्षेत्र:-
- लोकसभा के लिए प्रत्यक्ष चुनाव कराने के उद्देश्य से प्रत्येक राज्य को भौगोलिक सीटों में विभाजित किया गया है।
- संविधान में इस संबंध में निम्नलिखित दो प्रावधान किए गए हैं:
- प्रत्येक राज्य को लोकसभा की कुछ सीटें इस तरह दी जाती हैं कि उस संख्या का उसकी जनसंख्या के साथ अनुपात सभी राज्यों के लिए समान हो। यह धारा उन राज्यों पर लागू नहीं होती जिनकी जनसंख्या 60 लाख से कम है।
- प्रत्येक राज्य को प्रादेशिक निर्वाचन क्षेत्रों में इस प्रकार विभाजित किया गया है कि प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र की जनसंख्या और उसे दी गई सीटों की संख्या का अनुपात पूरे राज्य में समान है।
सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार (अनुच्छेद 326):-
- प्रत्येक नागरिक जिसने न्यूनतम 18 वर्ष की आयु प्राप्त कर ली है (61वां संशोधन अधिनियम) को लोकसभा के चुनावों में वोट देने का अधिकार है।
- हालाँकि, यह आवश्यक है कि उसका नाम उसके निर्वाचन क्षेत्र की मतदाता सूची में शामिल हो।
अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए सीटों का आरक्षण:-
- कुछ निर्वाचन क्षेत्र अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित हैं। इन्हें आरक्षित निर्वाचन क्षेत्र कहा जाता है ।
- प्रत्येक आरक्षित निर्वाचन क्षेत्र से केवल अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति के उम्मीदवार ही चुनाव लड़ सकते हैं।
- हालाँकि, ऐसे प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र के सभी मतदाता अपने प्रतिनिधि के रूप में अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति के एक उम्मीदवार को चुनने के लिए अपने मताधिकार का प्रयोग करते हैं।
- वर्तमान में 131 सीटें आरक्षित हैं (अनुसूचित जातियों के लिए 84 और अनुसूचित जनजातियों के लिए 47)।
एकल सदस्य प्रादेशिक निर्वाचन क्षेत्र:-
- पूरे देश को उतने ही प्रादेशिक निर्वाचन क्षेत्रों में बांटा गया है जितने लोकसभा के निर्वाचित होने वाले सदस्यों की संख्या है। प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र से एक सांसद चुना जाता है
फर्स्ट-पास्ट-द-पोस्ट प्रणाली:-
- फर्स्ट-पास्ट-द-पोस्ट (एफपीटीपी) मतदान प्रणाली किसी निर्वाचन क्षेत्र में सबसे अधिक वोट पाने वाले उम्मीदवार को विजेता घोषित करती है। इसे अक्सर साधारण बहुमत प्रणाली के रूप में जाना जाता है। इस पद्धति का उपयोग भारत में लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के प्रत्यक्ष चुनावों के लिए किया जाता है।
- लोकसभा के सभी सदस्य सीधे जनता द्वारा चुने जाते हैं। कोई भी मतदाता अपने निर्वाचन क्षेत्र से अपनी पसंद के किसी भी उम्मीदवार को चुनने के लिए अपना वोट दे सकता है।
- किसी निर्वाचन क्षेत्र के सभी प्रतियोगियों में से सबसे अधिक वोट प्राप्त करने वाला उम्मीदवार लोकसभा में अपने निर्वाचन क्षेत्र के लोगों का प्रतिनिधि चुना जाता है।
आनुपातिक प्रतिनिधित्व न अपनाना:-
- हालांकि संविधान ने राज्यसभा के लिए आनुपातिक प्रतिनिधित्व (Proportional Representation) प्रणाली को मंजूरी दी है, लेकिन इसने लोकसभा के लिए उसी तरीके को नहीं चुना है। इसके बजाय, इसने क्षेत्रीय प्रतिनिधित्व पद्धति का उपयोग करके सदस्यों को लोकसभा के लिए चुना है।
- यह एक जटिल तरीका है जो एक छोटे से देश में काम कर सकता है लेकिन भारत के उपमहाद्वीप जैसे देश में इसे लागू करना कठिन होगा।
- संविधान द्वारा इस प्रणाली को दो कारणों से नहीं अपनाया गया था।
- देश की कम साक्षरता दर के कारण मतदाता प्रणाली (जो जटिल है) को समझने में असमर्थता है।
- राजनीतिक दलों को बढ़ाने की प्रणाली की प्रवृत्ति के कारण संसदीय सरकार के लिए अनुपयुक्तता, जिसके परिणामस्वरूप सरकार अस्थिरता होती है।
आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के दोष:-
1. दलों की एकता नष्ट होती – यह प्रणाली बड़े राजनीतिक दलों की एकता नष्ट कर देती है, क्योंकि संकीर्ण हितों पर आधारित अनेक क्षेत्रीय अथवा स्थानीय दलों के निर्माण की प्रक्रिया तीव्र हो सकती है।
2. अनेक दलों और स्वार्थी गुटों का जन्म – आनुपातिक प्रतिनिधित्व ‘अल्पमत विचारधारा को प्रोत्साहन देता है, जिसके परिणामस्वरूप वर्ग-विशेष के हितों और स्वार्थों का जन्म होता है। इसके अन्तर्गत व्यवस्थापिका में किसी दल का स्पष्ट बहुमत नहीं होता है और मिश्रित मन्त्रिमण्डल के निर्माण में छोटे-छोटे दलों की स्थिति महत्त्वपूर्ण हो जाती है। वे अपनी स्थिति का लाभ उठाते हुए स्वार्थपूर्ण वर्गहित में अपना समर्थन बेच देते हैं। परिणामतः सार्वजनिक जीवन की पवित्रता नष्ट हो जाती है। फाइनर के अनुसार-“इस प्रणाली को अपनाने से प्रतिनिधि द्वारा अपने क्षेत्र की देखभाल प्रायः समाप्त हो जाती है।”
3. जटिल प्रणाली – यह प्रणाली व्यावहारिक रूप से अत्यन्त जटिल हैं। इसकी सफलता के लिए मतदाताओं में और उनसे भी अधिक निर्वाचन अधिकारियों में उच्चकोटि के ज्ञान की आवश्यकता होती है। मतदाताओं में और इसके नियम समझने में कठिनाई का सामना करना पड़ता है। साथ ही मतगणना अत्यन्त जटिल है, जिसमें भूल होने की भी अनेक सम्भावनाएँ हैं।
4. उपचुनाव की व्यवस्था नहीं – उपचुनाव में, जहाँ केवल एक प्रतिनिधि का चुनाव करना होता है, इस प्रणाली का प्रयोग असम्भव है। फाइनर के अनुसार-“उपचुनाव से यह ज्ञात होता है कि हवा किस ओर बह रही है, किन्तु इस प्रकार के उपचुनाव आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली में सम्भव नहीं हैं।”
5. नेताओं के प्रभाव में वृद्धि – आनुपातिक प्रणाली में, विशेषतया सूची प्रणाली में राजनीतिक दलों तथा नेताओं का प्रभाव एवं महत्त्व बहुत बढ़ जाता है और साधारण सदस्यों की स्वतन्त्रता लगभग समाप्त हो जाती है।
6. मतदाताओं तथा प्रतिनिधियों में सम्बन्ध नहीं – बहुसदस्यीय क्षेत्र होने के कारण मतदाताओं और उनके प्रतिनिधियों में परस्पर कोई सम्बन्ध नहीं होता, क्योंकि निर्वाचन क्षेत्र काफी बड़े होते हैं। निर्वाचन क्षेत्र के विस्तृत हो जाने के कारण व्यय भी बढ़ जाता है।
7. अस्थायी सरकारें – इस पद्धति से सामान्यतया संयुक्त सरकारें बनती हैं और वे अस्थायी होती हैं।
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