राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों की आलोचना:-
- अप्रवर्तनीयता(Un-enforceability) – राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों के अप्रवर्तनीय होने का अर्थ है कि उनमें से अधिकांश केवल ” कागजी घोषणाओं (Pious Declarations)” के रूप में ही रह गए हैं।
- संविधान निर्माताओं ने राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों को प्रवर्तनीय (Enforceable) नहीं बनाया। इसके पीछे कुछ प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं:
- अधिकारों की दो श्रेणियाँ: संविधान सभा में हुई चर्चाओं और बहसों के बाद यह निर्णय लिया गया कि व्यक्ति के अधिकारों को दो श्रेणियों में विभाजित किया जाना चाहिए – प्रवर्तनीय (मौलिक अधिकारों के रूप में शामिल) और अप्रवर्तनीय (राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों के रूप में शामिल)।
- अपर्याप्त वित्तीय संसाधन: स्वतंत्रता के समय, देश के पास इन्हें पूरी तरह से लागू करने के लिए पर्याप्त वित्तीय संसाधन नहीं थे।
- अनुमानित बाधाएँ: देश भर में विशाल विविधता और सामाजिक-आर्थिक पिछड़ेपन को देखते हुए इनके प्रभावी कार्यान्वयन को महत्त्वपूर्ण चुनौतियों के रूप में देखा गया।
- लचीलेपन की आवश्यकता: स्वतंत्रता के तुरंत पश्चात् एक राष्ट्र के रुप में भारत की कई महत्त्वपूर्ण प्राथमिकताएँ थीं। राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों को कानूनी रूप से लागू करने से संभावित रूप से राज्य की क्षमता पर बोझ पड़ सकता था।
- इसलिए, संविधान निर्माताओं ने यह निर्णय लिया कि कब, कहाँ और कैसे इन सिद्धांतों को लागू करना है, इस संबंध में लचीलापन होना चाहिए।
2.अतार्किक रूप से व्यवस्थित – राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों को न तो ठीक से वर्गीकृत किया गया है और न ही किसी सुसंगत दर्शन के आधार पर तार्किक रूप से व्यवस्थित किया गया है। जिस तरह से उन्हें व्यवस्थित किया गया है, वह अपेक्षाकृत महत्वहीन मुद्दों को सबसे महत्वपूर्ण सामाजिक-आर्थिक मुद्दों और आधुनिक मुद्दों को पुराने मुद्दों के साथ मिला देता है।
3.रूढ़िवादी प्रकृति – आलोचकों का तर्क है कि ये निर्देश ज्यादातर 19वीं सदी के इंग्लैंड के राजनीतिक दर्शन पर आधारित हैं और 21वीं सदी के भारत के लिए उपयुक्त नहीं हैं।
4.सामाजिक वास्तविकताओं की अनदेखी – कुछ लोगों का तर्क है कि राज्य के नीति निदेशक सिद्धांत भारत की विविध सामाजिक-आर्थिक वास्तविकताओं की जटिलताओं को संबोधित करने में विफल रहते हैं, जिसके परिणामस्वरूप ऐसी नीतियाँ बनती हैं जो सभी नागरिकों की जरूरतों को प्रभावी ढंग से पूरा नहीं कर सकती हैं।
संवैधानिक संघर्ष – वे कई तरह के संवैधानिक संघर्षों को जन्म देते हैं जैसा कि नीचे देखा जा सकता है:
5.केंद्र और राज्यों के बीच – केंद्र इन सिद्धांतों के कार्यान्वयन के संबंध में राज्य सरकारों को निर्देश दे सकता है, और अनुपालन न करने की स्थिति में संबंधित राज्य सरकार को बर्खास्त कर सकता है।
6.राष्ट्रपति और संसद के बीच – राष्ट्रपति किसी ऐसे विधेयक को अस्वीकार कर सकता है जो किसी राज्य के नीति निदेशक सिद्धांत का उल्लंघन करता हो।
7.राज्यपाल और राज्य विधायिका के बीच – राज्यपाल किसी ऐसे विधेयक को अस्वीकार कर सकता है जो किसी राज्य के नीति निदेशक सिद्धांत का उल्लंघन करता हो।
8.मौलिक अधिकारों के साथ संघर्ष – कुछ राज्य के नीति निदेशक सिद्धांत प्राय: मौलिक अधिकारों के साथ टकराते हैं, जिससे परस्पर विरोधी हितों को संतुलित करने की चुनौतियां उत्पन्न होती हैं।
निर्देशक सिद्धांत महत्त्वपूर्ण और उपयोगी हैं:-
- निर्देशों का साधन: ये तत्त्व भारतीय संघ के भीतर सभी प्राधिकरणों के लिए “निर्देशों के उपकरण” या सामान्य सिफारिशों के रूप में कार्य करते हैं।
- राज्य कार्यों के लिए रूपरेखा: ये तत्त्व राज्य द्वारा किये गए सभी कार्यों (विधायी और कार्यकारी) को निर्देशित करने वाले व्यापक ढांचे का गठन करते हैं।
- न्यायपालिका की सहायता: ये तत्त्व न्यायपालिका को किसी कानून की संवैधानिक वैधता का निर्धारण करने में मदद करते हैं। इस प्रकार, ये न्यायालयों के लिए मार्गदर्शक प्रकाश के रूप में कार्य करते हैं।
- संवैधानिक उद्देश्यों को प्राप्त करने में सहायता: ये तत्त्व भारत के सभी नागरिकों के लिए – न्याय, स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व – प्रस्तावना में परिकल्पित आदर्शों को विस्तृत करते हैं और उन्हें प्राप्त करने का लक्ष्य रखते हैं।
- नीतियों में स्थिरता और निरंतरता: ये तत्त्व राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक क्षेत्रों में घरेलू और विदेश नीतियों दोनों में स्थिरता और निरंतरता की सुविधा प्रदान करते हैं।
- मौलिक अधिकारों का पूरक: ये तत्त्व सामाजिक और आर्थिक अधिकारों का प्रावधान करके भाग तीन के रिक्त स्थान को भरकर मौलिक अधिकारों के पूरक के रुप में कार्य करते हैं।
- सामाजिक-आर्थिक लोकतंत्र को प्राप्त करने में सहायता: सामाजिक-आर्थिक लोकतंत्र स्थापित करने का प्रयास करके, ये सिद्धांत नागरिकों के लिए अपने मौलिक अधिकारों का पूर्ण और उचित बनाने के लिए एक अनुकूल वातावरण बनाते हैं।
- सरकारी प्रदर्शन को मापने में सहायता: ये तत्त्व सरकार के प्रदर्शन को मापने के लिए मापदंड के रूप में कार्य करते हैं। इस प्रकार, ये नागरिकों के साथ-साथ विपक्ष को सरकार की नीतियों और कार्यक्रमों की जांच करने में सहायता करते हैं।
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