समुद्रगुप्त (335-380 ई.) : यह गुप्त वंश का सर्वाधिक पराक्रमी शासक हुआ।
- राज्यारोहण से पूर्व उसे अपने बड़े भाई काच के विद्रोह का सामना करना पड़ा।
- काच ने स्वयं को शासक घोषित करने के लिए अपने नाम के सिक्के भी ढलवाए, परन्तु समुद्रगुप्त ने स्थिति पर शीघ्र ही काच पर नियन्त्रण प्राप्त कर लिया।
- समुद्रगुप्त के दरबारी कवि हरिषेण ने “चम्पूकाव्य शैली” में प्रयाग प्रशस्ति की रचना की |
- इस अभिलेख से ही गुप्त काल के बारे में सर्वाधिक महत्वपूर्ण जानकारियाँ मिलती हैं |
- उसे अपनी साम्राज्यवादी नीति के कारण इतिहासकार वी ए स्मिथ द्वारा भारत के नेपोलियन की संज्ञा दी गई है |
समुद्रगुप्त की साम्राज्य विस्तार नीति :-
- उनके (Samudragupta) समय भारतवर्ष कई खण्डों में विभाजित था तथा छोटे-छोटे राज्यों ने अपने स्वाधीन राज्य स्थापित कर रखे थे। जिस कारण भारत की सैन्य शक्ति क्षीण हो गई थी और देश में विदेशी हमलों का खतरा बढ़ गया था।
- भविष्य के खतरों को भांपते हुए समुद्रगुप्त (Samudragupta) ने एकछत्र शासन की निति अपनायी। उनके साम्राज्य विस्तार की निति का उद्देश्य भारतवर्ष के विभाजित खण्डों को फिर से एक सूत्र में बांधना एवं भारत को एक शक्तिशाली राज्य के रूप में स्थापित करना था।
- उन्होंने अपनी सूझबूझ के द्वारा देश में राजनीतिक एकता स्थापित कर भारत के भौगोलिक स्वरूप को बदल दिया। डब्ल्यू नॉर्मन ब्राउन के अनुसार समुद्रगुप्त विश्व के पहले ऐसे सम्राट थे जिन्होंने सौ से अधिक युद्ध लड़े थे और अपराजित रहे इसी कारण उन्होंने ‘पृथ्वी के प्रथम वीर’ की उपाधि धारण की थी। नेपोलियन से कहीं अधिक महान थे सम्राट समुद्रगुप्त-: इतिहासकार जैसे वी.ए. स्मिथ ने समुद्रगुप्त (Samudragupta) की तुलना फ्रांस के नेपोलियन (1769-1821ई.) से की। यह तुलना कई कारणों से की जाती है। पहले नेपोलियन की तरह समुद्रगुप्त वीर और साहसी थे। दूसरा, समुद्रगुप्त ने नेपोलियन की तरह ही नए क्षेत्रों को जीतने के लिए अज्ञात मार्गों से आक्रमण किया। तीसरा, नेपोलियन की भाँति उन्होंने उन शासकों को युद्ध कर परास्त किया जो उनके देश को एकसूत्र में बांधने की नीति का विरोध करते थे। तथा चौथा ,नेपोलियन की भांति ही समुद्रगुप्त के प्रति भी विदेशी आक्रमणकारियों में भय व्याप्त था।
- हालाँकि, समुद्रगुप्त की उपलब्धियों के सावधानीपूर्वक विश्लेषण करने से यह पता चलता है कि वह कई मामलों में नेपोलियन से कहीं अधिक वीर व महान थे: जैसे- • ट्राफलगर और वाटरलू में जैसे नेपोलियन को हार का सामना करना पड़ा उस तरह समुद्रगुप्त को कभी हार का सामना नहीं करना पड़ा। • नेपोलियन बोनापार्ट को कैद कर लिया गया और बंदी के रूप में उसकी मृत्यु हो गई, लेकिन समुद्र गुप्त के साथ ऐसा नहीं था। • उन्होंने चारों तरफ से दुश्मन बना लिया मित्र राष्ट्र बहोत अल्प थे परंतु इसके विपरीत, समुद्रगुप्त (Samudragupt) ने विदेशी क्षेत्रों को बल के साथ-साथ कूटनीति से भी जीतने का प्रयास किया जैसे, कई पड़ोसी राष्ट्र के साथ वैवाहिक संबंध बनाकर उन्हे अपने साम्राज्य में मिला लिया, मैत्री संबंध स्थापित कर श्री लंका में वाणिज्य पर अधिकार प्राप्त किया , अपने राजनैतिक कुशलता एवं कूटनीति का परिचय देते हुए समुद्रगुप्त ने नेपोलियन की भांति पूरे एशिया महाद्वीप को अपना दुश्मन नहीं बनाया था।
पुरातात्विक साक्ष्य– समुद्रगुप्त को इलाहाबाद स्तंभ शिलालेख में एक निर्णायक जीत का श्रेय दिया गया था, जिसे समुद्रगुप्त के दरबार के मंत्री और सेनापति हरिषेण ने प्रयाग प्रसस्ती के अभिलेखों में दर्ज़ किया था।
- यह समुद्रगुप्त की अब तक के सैन्य सफलताओं का सबसे मजबूत साक्ष्य प्रदान करता है।
- यह दावा किया जाता है कि समुद्रगुप्त ने सौ युद्ध लड़े थे।
- समुद्रगुप्त को चंद्रगुप्त द्वितीय के मथुरा के शिलालेख में “सभी शासकों के संहारक” के रूप में जाना जाता है।
- इतिहासकार डॉ. राधाकुमुद मुकर्जी के शब्दों में वे सौ लड़ाइयों के नायक थे। तथा उन्होंने भारत के सभी हिस्सों को अपनी सर्वोपरि संप्रभुता को स्वीकार कराने में सफलता हासिल की थी।
- आधुनिक विद्वान समुद्रगुप्त के व्यापक सैन्य अभियानों के पीछे की संभावित कारणों के बारे में विभिन्न मत प्रस्तुत करते हैं।
- इलाहाबाद स्तंभ के शिलालेख से पता चलता है कि समुद्रगुप्त का उद्देश्य देश का एकीकरण था, जिससे पता चलता है कि वह एक चक्रवर्ती (एक सार्वभौम शासक) बनने का लक्ष्य रखते थे।
- उनका दक्षिण भारत अभियान के पीछे का कारण दक्षिण-पूर्व एशिया के बीच व्यापार को नियंत्रित करने के आर्थिक विचारों से प्रेरित हो सकता है। प्रयाग प्रशस्ति इस विषय पर संपूर्ण जानकारी प्रदान करती है।
- प्रशंसा के बावजूद, यह स्पष्ट नहीं है कि वास्तव में उन्होंने प्रत्येक राज्य को कब जीता। इस काम में केवल जीत पर प्रकाश डाला गया है।
देश का एकीकरण अभियान-: सम्राट समुद्रगुप्त को उत्तराधिकार के तौर पर केवल एक छोटा क्षेत्रफल प्राप्त हुआ था जिसने समुद्रगुप्त को प्रेरित किया दिग्विजय सम्राट बनने में। सम्राट समुद्रगुप्त ने सिंहासन आरोहण के पश्चात बिना बिलंब किए दिग्विजय अभियान की घोषणा कर दी क्योंकि चन्द्रगुप्त प्रथम के मृत्यु के पश्चात दरबारी सामंती राजाओं ने विद्रोह कर दिया था जिससे राज्य में विकट परिस्थिति उत्पन्न हो गई थी । दक्षिणी राज्य विजय अभियान-: इलाहाबाद स्तंभ पर शिलालेख में कहा गया है कि समुद्रगुप्त ने दक्षिणापथ, दक्षिणी क्षेत्र के निम्नलिखित शासकों को अधीन (और फिर मुक्त कर दिया ) किया:
चतुर्थ चरण में उसने दक्कन के 12 राज्यों को जीता जो थे :
- कोशल का राजा महेन्द्र,
- महाकान्तार का राजा व्याघ्रराज,
- कौराल का राजा मण्टराज,
- पिष्टपुर का राजा महेन्द्रगिरि,
- कोट्ठर का राजा स्वामीदत्त,
- काँची का राजा विष्णुगोप ( यह समुद्र गुप्त की अत्यंत महत्वपूर्ण विजय मानी जाती है ),
- अवमुक्त का राजा नीलराज,
- वेगी का राजा हस्तिवर्मा,
- पालक्क का राजा उग्रसेन,
- देवराष्ट्र का राजा कुबेर,
- कुस्थलपुर का राजा धनन्जय तथा
- एरण्डपल्ल का राजा दमन ।
आर्यावर्त का विजय अभियान (उत्तरी भारत)-: इतिहासकारों के अनुसार यह समुद्रगुप्त (Samudragupta) का प्रथम सफल सैन्य अभियान था। प्रयाग प्रशस्ति का दावा है कि तब आर्यावर्त को नौ अलग-अलग राज्यों में विभाजित किया गया था। इलाहाबाद प्रशस्ति के अनुसार, समुद्रगुप्त ने इन राजाओं के क्षेत्रों पर कब्जा कर लिया था। इसके बाद इन लड़ाइयों के परिणामस्वरूप पूरे उत्तरी भारत को गुप्त वंश के शासन में लाया गया। आर्यावर्त केबहुत से राजाओं का राज्य समुद्रगुप्त ने जीत लिया था ।
पाँचवाँ चरण में उसने विदेशी शक्तियों को जैसे- देवपुत्र शाहीन शाहानुशाही (भारत की पश्चिमी सीमा पर रहने वाले कुषाण वंशजों), शक, मुरूदण्ड, सिंहलद्वीप, सर्वद्वीपवासिन के राजाओं को जीता।
- इन विदेशी शासकों के साथ तीन विधियाँ अपनाई गई आत्मनिवेदन अर्थात् गुप्त सम्राट के सामने स्वयं हाजिर होना, कन्नोपायन अर्थात् अपनी पुत्रियों का गुप्त राजघराने में विवाह करना तथा गुरुत्मन्दक अर्थात् अपने विषय या भुक्ति के लिए गरुड़ अंकित मुहर से छपे शासनादेश प्राप्त करना।
- साहित्य एवं संगीत में समुद्रगुप्त की अभिरुचि थी।
- हरिषेण द्वारा उसे “कविराज” तथा “संगीत का प्रेमी” की उपाधि से विभूषित किया गया है।
- एक मुहर पर उसे वीणा बजाते हुए भी दिखाया गया है |
विदेशी राज्यों के साथ संबंध-:
- समुद्रगुप्त (Samudragupta) के शिलालेख के अनुसार, कई राजाओं ने उनके साथ मैत्री एवं वैवाहिक संबंध स्थापित करके उनके राज्य के अधीन जागीरदार के रूप में शासन करना स्वीकार किया।
- सासानियों पर समुद्रगुप्त की विजय-: इतिहासकार अश्विनी अग्रवाल के अनुसार, किदरा, जिन्होंने सबसे पहले सासैनियन सम्राट शापुर द्वितीय के अधीनस्थ के रूप में शासन किया था, ने अपने सासैनियन शासक को हटाने के लिए समुद्रगुप्त के साथ गठबंधन किया हो ऐसे प्रमाण मिलते हैं।
समुद्रगुप्त के साम्राज्य की विस्तृत सीमाएँ-:
- समुद्रगुप्त (Samudragupta) ने अपनी सभी जीत के बाद एक बड़े क्षेत्र का निर्माण किया। उसके राज्य की पूर्वी सीमा संभवतः ब्रह्मपुत्र तक फैली हुई थी।
- दक्षिण में इसका विस्तार गया नदी तक था।
- पश्चिम में उसका राज्य सतलुज नदी तक फैला हुआ था।
- उत्तर में कश्मीर को छोड़कर, शेष उत्तरी भारत उसके साम्राज्य के अधीन था।
- इसके अलावा, उसके पास कई अधीनस्थ राजा थे जो उनके अधिकार क्षेत्र में जागीरदार के रूप में अपने राज्य का शासन करते थे।
- इतिहासकार R C मजुमदार के अनुसार, समुद्रगुप्त (Samudragupta) का प्रभाव का सीधा क्षेत्र पश्चिमी रावी नदी (पंजाब) से पूर्वी ब्रह्मपुत्र नदी (बंगाल और असम) तक और उत्तरी हिमालय की तलहटी से दक्षिणी विंध्य तक फैला हुआ था।
- एरण शहर समुद्रगुप्त (Samudragupta) के शासन के अधीन था, जैसा कि राज्य के दक्षिणी भाग, आधुनिक मध्य प्रदेश में खोजे गए एक शिलालेख से पता चलता है।
- इलाहाबाद स्तंभ का दावा है कि उसने दक्षिण में कांचीपुरम तक शासन किया।
- इतिहासकार अश्विनी अग्रवाल के अनुसार, गदाहारा जनजाति का एक सोने का सिक्का इंगित करता है कि समुद्रगुप्त (Samudragupta) का शासन पंजाब क्षेत्र में चिनाब नदी तक पहुंच गया था।
- उन्होंने अश्वमेघ यज्ञ सम्पन्न कर अपनी कार्यकुशलता और युद्धनीति को प्रमाणित किया।
- समुद्रगुप्त (Samudragupta) द्वारा बनवाए गए शिलालेख और सोने के सिक्के यह भी इंगित करते हैं कि वह एक कुशल संगीतकार और कवि भी थे तथा उन्हें वीणा बजाने में भी रुचि थी।
- उनके पुत्र और उत्तराधिकारी, सम्राट चंद्रगुप्त द्वितीय ने अपने पिता की विस्तारवादी नीतियों को जारी रखा।
- युद्धकला में कुशलता के साथ-साथ साहित्य और संगीतकला का भी ज्ञान रखने वाले समुद्रगुप्त की उपलब्धियों को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि समुद्रगुप्त निश्चय ही एक बहुप्रतिभाशाली तथा वीरता से परिपूर्ण योग्य शासक थे जिन्होंने अपने काल में देश में एकछत्र शासन स्थापित कर उसे बाहरी आक्रमणकारियों से सुरक्षित बनाये रखा तथा भारतवर्ष की समृद्धि में अपना प्रमुख योगदान दिया।
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