स्वदेशी आंदोलन 1905 में बंगाल के विभाजन के विरोध में शुरू किया गया था और यह भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का एक महत्वपूर्ण चरण था। यह आंदोलन ब्रिटिश सामानों के बहिष्कार और भारतीय उत्पादों के उपयोग को बढ़ावा देने के उद्देश्य से चलाया गया था। इसका लक्ष्य भारतीयों में आत्मनिर्भरता की भावना विकसित करना और ब्रिटिश आर्थिक हितों को नुकसान पहुँचाना था। स्वदेशी आंदोलन का विस्तार केवल आर्थिक स्तर तक सीमित नहीं था, बल्कि यह एक सांस्कृतिक और राजनीतिक आंदोलन के रूप में भी उभरा।
स्वदेशी आंदोलन का पृष्ठभूमि
- बंगाल का विभाजन:
- इस आंदोलन की जड़ें विभाजन विरोधी आंदोलन ( Anti-Partition Movement) में थीं, जो लॉर्ड कर्ज़न के बंगाल प्रांत को विभाजित करने के फैसले का विरोध करने के लिये शुरू किया गया था।
- बंगाल के विभाजन का मुख्य उद्देश्य ब्रिटिश शासन के लिए प्रशासनिक सुविधा से अधिक हिंदू-मुस्लिम एकता को तोड़ना और ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति के तहत भारतीय राष्ट्रवाद को कमजोर करना था। इस विभाजन के कारण बंगाल में व्यापक असंतोष और आक्रोश फैल गया।
- बंगालियों की प्रतिक्रिया:
- बंगाल के लोगों ने विभाजन को एक षड्यंत्र के रूप में देखा और इसके खिलाफ व्यापक विरोध शुरू किया। इस विरोध ने स्वदेशी आंदोलन को जन्म दिया, जो जल्द ही पूरे देश में फैल गया।
स्वदेशी आंदोलन के मुख्य उद्देश्य
- ब्रिटिश वस्त्रों का बहिष्कार:
- आंदोलन का प्रमुख उद्देश्य ब्रिटिश वस्त्रों और अन्य आयातित सामानों का बहिष्कार करना था। भारतीयों ने विदेशी कपड़ों को जलाने के लिए सामूहिक रूप से एकजुट होकर प्रदर्शन किया और अपने स्वदेशी (घरेलू) कपड़ों और वस्त्रों का उपयोग करने का संकल्प लिया।
- भारतीय उद्योगों को प्रोत्साहन:
- स्वदेशी आंदोलन का एक अन्य महत्वपूर्ण उद्देश्य भारतीय उद्योगों, विशेष रूप से हथकरघा और कपड़ा उद्योग, को प्रोत्साहित करना था। भारतीयों को अपने ही देश में निर्मित वस्त्रों और अन्य उत्पादों का उपयोग करने के लिए प्रेरित किया गया।
- आत्मनिर्भरता और स्वावलंबन:
- आंदोलन ने भारतीयों में आत्मनिर्भरता और स्वावलंबन की भावना को बढ़ावा दिया। भारतीयों को यह संदेश दिया गया कि वे ब्रिटिश शासन पर निर्भर हुए बिना खुद के संसाधनों से अपना जीवन यापन कर सकते हैं।
- ब्रिटिश आर्थिक हितों को नुकसान पहुँचाना:
- स्वदेशी आंदोलन का एक अन्य उद्देश्य ब्रिटिश आर्थिक हितों को नुकसान पहुँचाना था। ब्रिटिश शासन भारत से कच्चे माल का निर्यात कर और यहाँ अपने तैयार उत्पादों को बेचकर लाभ कमा रहा था। स्वदेशी आंदोलन ने इस व्यवस्था को चुनौती दी और ब्रिटिश व्यापार को कमजोर किया।
स्वदेशी आंदोलन के मुख्य घटक
- प्रचार और जागरूकता:
- आंदोलन के नेताओं ने स्वदेशी वस्त्रों और उत्पादों के उपयोग के लिए व्यापक प्रचार अभियान चलाया। उन्होंने जनसभाओं, रैलियों, और समाचार पत्रों के माध्यम से जनता को जागरूक किया और विदेशी वस्त्रों के बहिष्कार की अपील की।
- राष्ट्रीय शिक्षा संस्थानों की स्थापना:
- स्वदेशी आंदोलन के दौरान कई राष्ट्रीय शिक्षा संस्थानों की स्थापना की गई, जहाँ भारतीय मूल्य और संस्कृति पर आधारित शिक्षा दी जाती थी। इसका उद्देश्य ब्रिटिश शिक्षा प्रणाली के प्रभाव को कम करना और भारतीय युवाओं को स्वदेशी विचारधारा से जोड़ना था।
- स्वदेशी व्यापारिक प्रतिष्ठान:
- भारतीय व्यापारियों ने स्वदेशी उत्पादों के लिए विशेष दुकानों और बाजारों की स्थापना की। इन प्रतिष्ठानों में केवल भारतीय उत्पादों को बेचा जाता था, और लोगों को स्वदेशी वस्त्रों और अन्य वस्तुओं का उपयोग करने के लिए प्रेरित किया गया।
- महिलाओं की भागीदारी:
- स्वदेशी आंदोलन में महिलाओं की भी सक्रिय भागीदारी रही। उन्होंने भी विदेशी वस्त्रों का बहिष्कार किया और स्वदेशी कपड़े बनाने और पहनने का संकल्प लिया। इस आंदोलन ने भारतीय समाज में महिलाओं की भूमिका को भी मजबूत किया।
- आंदोलन का राजनीतिक प्रभाव:
- स्वदेशी आंदोलन ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के भीतर विभाजन को भी जन्म दिया, जिसमें गरम दल और नरम दल के नेताओं के बीच मतभेद उभर कर सामने आए। गरम दल के नेता अधिक उग्र और सीधी कार्रवाई की मांग कर रहे थे, जबकि नरम दल के नेता संवैधानिक सुधारों के पक्षधर थे।
स्वदेशी आंदोलन का प्रभाव:
- आयात में गिरावट: आंदोलन के परिणामस्वरूप वर्ष 1905-1908 के दौरान विदेशी आयात में उल्लेखनीय गिरावट आई।
- उग्रवाद का विकास: आंदोलन के परिणामस्वरूप युवाओं में चरम राष्ट्रवाद का विकास हुआ जो हिंसा के माध्यम से ब्रिटिश प्रभुत्व को तुरंत समाप्त करना चाहता था।
- मॉर्ले-मिंटो सुधार: वर्ष 1909 में मॉर्ले-मिंटो सुधारों (Morley-Minto Reforms) के रूप में ब्रिटिश शासन को भारतीयों को कुछ रियायतें देने हेतु मजबूर किया।
- गोपाल कृष्ण गोखले (Gopal Krishna Gokhale) ने इन सुधारों की रूपरेखा तैयार करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।
- स्वदेशी संस्थानों की स्थापना: रवींद्रनाथ टैगोर के शांतिनिकेतन से प्रेरित होकर, बंगाल नेशनल कॉलेज और देश के विभिन्न हिस्सों में कई राष्ट्रीय स्कूल और कॉलेज स्थापित किये गए।
- अगस्त 1906 में राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली को व्यवस्थित करने हेतु राष्ट्रीय शिक्षा परिषद (National Council of Education) की स्थापना की गई थी।
- तकनीकी शिक्षा को बढ़ावा देने हेतु बंगाल प्रौद्योगिकी संस्थान (Bengal Institute of Technology) की स्थापना की गई।
- स्वदेशी उद्योगों में वृद्धि: इससे देश में स्वदेशी कपड़ा मिलों, साबुन और माचिस की फैक्ट्रियों, चर्मशोधन कारखानों, बैंकों, बीमा कंपनियों, दुकानों आदि की स्थापना हुई।
- इसने भारतीय कुटीर उद्योग को भी पुनर्जीवित किया।
- भारतीय उद्योगों ने स्वदेशी वस्तुओं के उपयोग को पुनर्जागरण के साथ उत्थान से भी जोडकर देखा।
- विदेशी खरीदारों और विक्रेताओं का बहिष्कार: कपड़े, चीनी, नमक और विभिन्न अन्य विलासिता की वस्तुओं सहित विदेशी वस्तुओं का न केवल बहिष्कार किया गया, बल्कि उन्हें जलाया भी गया।
- स्वदेशी आंदोलन में न केवल खरीदारों बल्कि विदेशी सामानों के विक्रेताओं का भी सामाजिक बहिष्कार किया गया।
स्वदेशी आंदोलन का क्रमिक दमन:
- सरकार द्वारा दमन: वर्ष 1908 तक सरकार की हिंसक कार्यवाही द्वारा स्वदेशी आंदोलन के एक चरण को लगभग समाप्त कर दिया गया।
- नेताओं और संगठन की अनुपस्थिति: आंदोलन एक प्रभावी संगठन बनाने में विफल रहा। सरकार द्वारा अधिकांश नेताओं को या तो गिरफ्तार कर लिया गया था या निर्वासित कर दिया गया जिससे आंदोलन नेतृत्वविहीन हो गया।
- प्रभावी नेताओं की अनुपस्थिति के कारण आंदोलन में उच्च जन-भागीदारी को बनाए रखना एक कठिन कार्य था।
- आंतरिक संघर्ष: नेताओं के मध्य आंतरिक संघर्षों और विचारधाराओं में अंतर ने आंदोलन को नुकसान पहुंँचाया।
- सीमित विस्तार: आंदोलन किसानों तक पहुंँचने में विफल रहा तथा यह केवल उच्च और मध्यम वर्ग तक ही सीमित था।
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