भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के प्रारंभिक इतिहास में “नरमपंथी” (Moderates) और “उग्रपंथी” (Extremists) दो प्रमुख धड़े थे। इन दोनों धड़ों के बीच कांग्रेस के उद्देश्यों और रणनीतियों को लेकर मतभेद थे।
इन दोनों धड़ों की विशेषताओं, विचारधाराओं और उनके बीच मतभेदों का विवरण दिया गया है:
नरमपंथी (Moderates)
प्रमुख विशेषताएँ:
- संवैधानिक सुधारों पर विश्वास:
- नरमपंथी नेता ब्रिटिश शासन के अंतर्गत संवैधानिक सुधारों के माध्यम से भारत के विकास और भारतीयों के अधिकारों की रक्षा करना चाहते थे। वे शांतिपूर्ण और संवैधानिक तरीकों से अपने उद्देश्यों को प्राप्त करने में विश्वास करते थे।
- ब्रिटिश शासन पर विश्वास:
- नरमपंथी नेताओं का मानना था कि ब्रिटिश शासन अंततः भारतीयों के हित में काम करेगा और भारत में राजनीतिक और सामाजिक सुधारों को लागू करेगा। उनका विश्वास था कि ब्रिटिश शासन भारतीयों को न्याय देगा और उनकी समस्याओं का समाधान करेगा।
- संवाद और याचिकाओं की नीति:
- नरमपंथी नेताओं ने “प्रार्थना, याचिका और विरोध” की नीति अपनाई। वे ब्रिटिश सरकार के सामने ज्ञापन और याचिकाएँ प्रस्तुत करते थे और उम्मीद करते थे कि सरकार उनके अनुरोधों पर विचार करेगी और सुधार करेगी।
- प्रमुख नेता:
- नरमपंथी नेताओं में दादा भाई नौरोजी, गोपाल कृष्ण गोखले, फिरोजशाह मेहता, बदरुद्दीन तैयबजी, सुरेंद्रनाथ बनर्जी जैसे प्रमुख नेता शामिल थे। इन नेताओं ने भारतीयों के अधिकारों की रक्षा के लिए ब्रिटिश संसद और अन्य मंचों पर आवाज उठाई।
- प्रमुख गतिविधियाँ:
- नरमपंथी नेताओं ने विभिन्न प्रशासनिक और राजनीतिक सुधारों की मांग की, जैसे कि भारतीयों को अधिक सरकारी नौकरियों में शामिल करना, विधायी परिषदों में भारतीयों की संख्या बढ़ाना, और आर्थिक शोषण के खिलाफ आवाज उठाना।
उग्रपंथी (Extremists)
प्रमुख विशेषताएँ:
- स्वराज्य की माँग:
- उग्रपंथी नेता ब्रिटिश शासन से पूर्ण स्वतंत्रता या “स्वराज्य” की माँग करते थे। उनका मानना था कि ब्रिटिश शासन के तहत भारतीयों के अधिकारों और स्वतंत्रता की रक्षा संभव नहीं है।
- सीधी कार्रवाई पर विश्वास:
- उग्रपंथी नेता ब्रिटिश सरकार के खिलाफ सीधी कार्रवाई, उग्र विरोध और आंदोलन की वकालत करते थे। वे मानते थे कि केवल संवैधानिक और शांतिपूर्ण तरीकों से ब्रिटिश शासन से मुक्ति संभव नहीं है।
- ब्रिटिश शासन का विरोध:
- उग्रपंथी नेता ब्रिटिश शासन के प्रति पूर्ण असहमति रखते थे और इसे भारत की प्रगति और स्वतंत्रता के लिए हानिकारक मानते थे। वे ब्रिटिश शासन की हर नीति और कदम का विरोध करते थे।
- स्वदेशी आंदोलन और बहिष्कार:
- उग्रपंथियों ने स्वदेशी आंदोलन, ब्रिटिश वस्त्रों का बहिष्कार, और ब्रिटिश संस्थानों से भारतीयों के बहिष्कार का समर्थन किया। उनका उद्देश्य था कि ब्रिटिश आर्थिक और राजनीतिक प्रभाव को कमजोर किया जाए।
- प्रमुख नेता:
- उग्रपंथी नेताओं में बाल गंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय, बिपिन चंद्र पाल (जिसे ‘लाल-बाल-पाल’ के नाम से भी जाना जाता है) जैसे प्रमुख नेता शामिल थे। उन्होंने कांग्रेस के भीतर एक मजबूत राष्ट्रवादी और उग्रपंथी विचारधारा का विकास किया।
- प्रमुख गतिविधियाँ:
- उग्रपंथियों ने ब्रिटिश शासन के खिलाफ आंदोलनों का नेतृत्व किया, जैसे कि बंगाल विभाजन के खिलाफ आंदोलन, स्वदेशी आंदोलन, और अन्य विरोध प्रदर्शन। उन्होंने भारतीय समाज में स्वतंत्रता और स्वाभिमान की भावना को प्रोत्साहित किया।
नरमपंथियों और उग्रपंथियों के बीच मतभेद:
- रणनीति और दृष्टिकोण:
- नरमपंथी और उग्रपंथी नेताओं के बीच मुख्य मतभेद उनकी रणनीतियों और दृष्टिकोण में थे। नरमपंथी शांतिपूर्ण और संवैधानिक तरीकों से सुधारों की मांग करते थे, जबकि उग्रपंथी सीधी कार्रवाई और उग्र आंदोलन का समर्थन करते थे।
- ब्रिटिश शासन के प्रति दृष्टिकोण:
- नरमपंथी नेता ब्रिटिश शासन को एक सुधारात्मक और संवेदनशील सत्ता मानते थे, जबकि उग्रपंथी इसे भारत के लिए हानिकारक और शोषक मानते थे और उससे पूरी तरह मुक्ति की मांग करते थे।
- सहयोग बनाम विरोध:
- नरमपंथी नेता ब्रिटिश शासन के साथ सहयोग करने की नीति अपनाते थे, जबकि उग्रपंथी हर मोर्चे पर विरोध करने का पक्ष लेते थे।
- समर्थन आधार:
- नरमपंथी नेता मुख्य रूप से शहरी शिक्षित वर्ग का समर्थन प्राप्त करते थे, जबकि उग्रपंथी नेताओं का समर्थन आधार व्यापक था और इसमें ग्रामीण और शहरी दोनों क्षेत्रों के लोग शामिल थे।
अंततः, नरमपंथी और उग्रपंथी दोनों धड़े भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का महत्वपूर्ण हिस्सा थे। उनके विचार और रणनीतियाँ अलग-अलग थीं, लेकिन उनका लक्ष्य एक ही था-भारत की स्वतंत्रता। समय के साथ, उग्रपंथी विचारधारा ने कांग्रेस में अधिक प्रभावी भूमिका निभानी शुरू की, और यह स्वतंत्रता संग्राम में निर्णायक साबित हुई।
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