1956 के राज्य पुनर्गठन अधिनियम के तहत भारत के राज्यों और क्षेत्रों का भाषाई आधार पर पुनर्गठन किया गया था। इस पुनर्गठन का उद्देश्य देश की अखंडता और एकता को बनाए रखते हुए भाषाई भेदभाव को कम करना था।
1953 में, भारत सरकार ने राज्यों को भाषा के आधार पर पुनर्व्यवस्थित करने के लिए एक आयोग का गठन किया। इस आयोग की अध्यक्षता फजल अली ने की थी, और एचएन कुंजरू और केएम पणिक्कर इसके अन्य प्रमुख सदस्य थे। 1956 में संसद ने राज्य पुनर्गठन अधिनियम पारित किया, जिससे भारत में भाषाई राज्यों का गठन हुआ।
भारत में राज्यों का भाषाई पुनर्गठन
1956 के राज्य पुनर्गठन अधिनियम के माध्यम से भारत के राज्यों और क्षेत्रों को भाषाई आधार पर पुनर्गठित किया गया।
यह अधिनियम 1 नवंबर, 1956 को लागू हुआ, जिसके बाद राज्यों का पुनर्गठन किया गया। इस पुनर्गठन का मुख्य उद्देश्य राज्यों के भीतर भाषाई एकता को सुनिश्चित करना था। इस कानून के तहत राज्यों का पुनर्निर्माण किया गया ताकि देश की एकता और अखंडता को बनाए रखा जा सके और हिंसा और संघर्ष को रोका जा सके। इसके साथ ही, इस अधिनियम ने एकता को सुदृढ़ किया और विविधता का सम्मान किया।
कई राज्यों ने अपनी क्षेत्रीय भाषाओं को आधिकारिक भाषा के रूप में अपनाया, जिससे प्रशासनिक कार्यों में सरलता आई। आंध्र प्रदेश, असम, बिहार, बॉम्बे, जम्मू और कश्मीर, केरल, मध्य प्रदेश, और मद्रास जैसे राज्यों का विभाजन भाषा के आधार पर किया गया था।
स्वतंत्रता से पहले प्रशासन
- 1947 में स्वतंत्रता से पहले ब्रिटिश भारत के प्रशासनिक प्रभाग ज्यादातर औपनिवेशिक कारकों द्वारा निर्धारित होते थे।
- प्रान्तों और रियासतों की सीमाएं भाषाई या सांस्कृतिक समानता पर ज्यादा विचार किए बिना ही निर्धारित की गईं।
भाषाई आंदोलनों का विकास
- स्वतंत्रता के बाद, सामाजिक और राजनीतिक संगठनों ने भाषाई राज्यों की आवश्यकता बढ़ा दी।
- भाषा विशेषज्ञों का मानना था कि भाषाई पुनर्गठन से कई भाषाई समुदायों के प्रतिनिधित्व और शासन में सुधार होगा।
भाषाई पुनर्गठन का आरंभ:
भारत की आजादी के बाद, 1948 में, एक भाषाई राज्यों के गठन की मांग पर विचार करने के लिए एक आयोग का गठन किया गया था, जिसे धर आयोग कहा जाता है। इस आयोग ने भाषाई आधार पर राज्यों के पुनर्गठन की सिफारिश नहीं की। इसके बाद 1953 में, आंध्र प्रदेश को तेलुगू भाषी लोगों के लिए एक अलग राज्य के रूप में स्थापित किया गया। यह स्वतंत्र भारत का पहला भाषाई राज्य था।
भाषाई राज्यों का गठन
- गुजरात और महाराष्ट्र की स्थापना क्रमशः मराठी और गुजराती भाषियों की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए की गई थी।
- पंजाब का निर्माण पंजाबी भाषी समुदायों के लिए किया गया था, और कर्नाटक का गठन कन्नड़ भाषी समुदायों का प्रतिनिधित्व करने के लिए किया गया था।
राज्यों के भाषाई पुनर्गठन से संबंधित संवैधानिक प्रावधान:
राज्यों के भाषाई पुनर्गठन से संबंधित संवैधानिक प्रावधान निम्नलिखित हैं:
संवैधानिक संशोधन
- भारतीय संविधान का 7वां संशोधन , जिसे 1956 में अनुमोदित किया गया था, भाषाई पुनर्गठन को बढ़ावा देने के लिए आवश्यक था।
- इसने राष्ट्रपति को राज्य की सीमाओं को संशोधित करने की अनुमति दी, जिससे भाषाई राज्यों की स्थापना संभव हो सकी।
1.संविधान का अनुच्छेद 3:
संविधान का अनुच्छेद 3 संसद को शक्ति प्रदान करता है कि वह नए राज्यों का निर्माण कर सकती है, मौजूदा राज्यों के क्षेत्रों में परिवर्तन कर सकती है, और राज्यों के नाम बदल सकती है। यह संसद को यह अधिकार देता है कि वह:
- नए राज्य का निर्माण कर सकती है।
- किसी भी राज्य के क्षेत्र का विस्तार कर सकती है।
- किसी भी राज्य के क्षेत्र को कम कर सकती है।
- राज्यों के बीच की सीमाओं को बदल सकती है।
- किसी भी राज्य का नाम बदल सकती है।
2. संविधान का अनुच्छेद 4:
संविधान का अनुच्छेद 4 यह प्रावधान करता है कि अनुच्छेद 2 और 3 के तहत बनाए गए कानून, जो राज्यों के पुनर्गठन से संबंधित हैं, को संविधान संशोधन का हिस्सा नहीं माना जाएगा। इसका अर्थ यह है कि इस प्रकार के कानूनों के लिए संविधान संशोधन प्रक्रिया का पालन करना आवश्यक नहीं है। इन्हें संसद के साधारण बहुमत से पारित किया जा सकता है।
राज्यों के भाषाई पुनर्गठन का महत्व
राज्यों के भाषाई पुनर्गठन का महत्व नीचे उल्लिखित है:
- भाषाई पुनर्गठन के माध्यम से कुछ राज्यों में विभिन्न भाषाओं और संस्कृतियों को संरक्षित और बढ़ावा दिया जाता है।
- भाषाई आधार पर निर्मित राज्य अपने-अपने भाषाई समुदायों की विशेष आवश्यकताओं को पूरा करके शासन में सुधार करते हैं।
- एक ही भाषा बोलने वाले लोगों के बीच यह समाज में एकता तथा एकजुटता एवं समुदाय की भावना को बढ़ावा देता है।
- भाषा-आधारित प्रशासनिक संशोधन संसाधनों के वितरण और सेवाओं के प्रावधान को बढ़ाते हैं।
- अतीत की शिकायतों को दूर करके, भाषाई पुनर्गठन तनाव को कम करता है और समाज में एकता को बढ़ावा देता है।
- यह लोकतांत्रिक आदर्शों के आधार पर शासन में भाषाई समुदायों के लिए समान प्रतिनिधित्व और आवाज सुनिश्चित करता है।
पुनर्गठन के प्रभाव:
- राजनीतिक स्थिरता: भाषाई आधार पर राज्यों के गठन ने क्षेत्रीय भाषाई असंतोष को कम किया और राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा दिया।
- प्रशासनिक सुविधा: भाषाई समानता के आधार पर राज्यों के गठन से प्रशासनिक कार्यों में सुगमता आई और राज्य सरकारों की प्रभावशीलता में वृद्धि हुई।
- संस्कृति और भाषा का संरक्षण: भाषाई राज्यों के गठन से स्थानीय भाषाओं और संस्कृतियों को संरक्षण मिला और उन्हें बढ़ावा देने का अवसर प्राप्त हुआ।
राज्यों के भाषाई पुनर्गठन में चुनौतियाँ
राज्यों के भाषाई पुनर्गठन में कई चुनौतियाँ सामने आईं:
1.भाषाई विवाद: विभिन्न भाषाई समूहों ने अपनी-अपनी भाषाओं के आधार पर राज्यों की मांग की, जिससे क्षेत्रीय विवाद और असंतोष उत्पन्न हुए।
2. सांस्कृतिक विविधता: एक ही राज्य में कई भाषाई और सांस्कृतिक समूहों का होना, पुनर्गठन की प्रक्रिया को और जटिल बना दिया, जिससे सभी समुदायों को संतुष्ट करना कठिन हो गया।
3. प्रशासनिक कठिनाइयाँ: नए राज्यों के गठन और सीमाओं के पुनर्निर्धारण से प्रशासनिक ढांचे को पुनर्गठित करने की आवश्यकता पड़ी, जिससे शासन और विकास के कार्यों में चुनौतियाँ आईं।
4. राजनीतिक विरोध: पुनर्गठन के दौरान विभिन्न राजनीतिक दलों और नेताओं के बीच असहमति और विरोध हुआ, जिससे निर्णय लेने की प्रक्रिया में रुकावटें आईं।
5. आर्थिक असंतुलन: नए राज्यों के गठन से कुछ क्षेत्रों में आर्थिक असमानता बढ़ी, जिससे विकास में असंतुलन और संघर्ष उत्पन्न हुए।
Leave a Reply