1857 की क्रांति से पूर्व के ब्रिटिश भारत में कृषि का वाणिज्यीकरण एक बहुत ही गहन और बहुआयामी प्रक्रिया थी, जिसने भारतीय समाज, अर्थव्यवस्था, और राजनीतिक ढांचे पर अत्यधिक प्रभाव डाला।
1. ब्रिटिश साम्राज्यवाद और कृषि का वाणिज्यीकरण
ब्रिटिश साम्राज्यवाद का उद्देश्य केवल भारत पर राजनीतिक नियंत्रण स्थापित करना नहीं था, बल्कि यह भारतीय अर्थव्यवस्था के पुनर्गठन के लिए भी प्रतिबद्ध था, ताकि ब्रिटिश उद्योगों को कच्चे माल की आपूर्ति हो सके। कृषि का वाणिज्यीकरण इस नीति का मुख्य अंग था। इसका मूल उद्देश्य भारतीय किसानों को ऐसी फसलें उगाने के लिए प्रेरित करना था, जिनकी मांग ब्रिटिश और अंतर्राष्ट्रीय बाजारों में थी।
2. नगदी फसलों की खेती और इसके प्रभाव
ब्रिटिश शासन ने भारतीय किसानों को पारंपरिक खाद्यान्न फसलों के बजाय नगदी फसलों की खेती के लिए मजबूर किया। यह नीति कई क्षेत्रों में लागू की गई:
- नील की खेती: बंगाल, बिहार, उड़ीसा, और मद्रास जैसे क्षेत्रों में नील की खेती को बढ़ावा दिया गया। नील एक महत्वपूर्ण रंग था, जिसका इस्तेमाल ब्रिटिश कपड़ा उद्योग में किया जाता था। नील किसानों के साथ अनुबंध (जिसे ‘टिन्काथिया प्रथा’ कहा जाता था) किया गया, जिससे उन्हें केवल नील उगाने के लिए मजबूर किया गया। इस प्रथा में किसानों को अपनी जमीन का 3/20 हिस्सा नील की खेती के लिए छोड़ना पड़ता था। इस अनुबंध में किसानों को बहुत कम भुगतान किया जाता था, जिससे वे आर्थिक रूप से बुरी तरह से प्रभावित हुए।
- कपास और जूट: महाराष्ट्र, गुजरात, और बंगाल में कपास और जूट की खेती को बढ़ावा दिया गया। कपास का निर्यात ब्रिटिश मिलों में किया जाता था, जहां से तैयार कपड़ा वापस भारत में बेचा जाता था। यह प्रक्रिया भारतीय वस्त्र उद्योग को नुकसान पहुँचाने के लिए की गई थी।
- चाय और कॉफी की खेती: असम और दक्षिण भारत में चाय और कॉफी के बागानों की स्थापना की गई। इन बागानों में किसानों को श्रमिक के रूप में काम करने पर मजबूर किया गया। ये श्रमिक अत्यधिक कड़ी शर्तों के तहत काम करते थे और उनकी मजदूरी बहुत कम थी।
- अफीम: उत्तर प्रदेश और बिहार में अफीम की खेती को बढ़ावा दिया गया। इसे ब्रिटिश सरकार ने चीन में निर्यात किया, जिससे वहां अफीम की लत फैली और अंततः अफीम युद्धों का कारण बनी। अफीम की खेती ने किसानों को खाद्यान्न उत्पादन से दूर कर दिया, जिससे स्थानीय स्तर पर खाद्यान्न की कमी हो गई।
3. ज़मींदारी और रैयतवाड़ी प्रणाली का प्रभाव
ब्रिटिश सरकार ने भारत में कृषि भूमि का प्रबंधन करने के लिए ज़मींदारी और रैयतवाड़ी प्रणाली को लागू किया:
- ज़मींदारी प्रणाली: बंगाल, बिहार, उड़ीसा और उत्तर प्रदेश के क्षेत्रों में यह प्रणाली लागू की गई। इस प्रणाली में ज़मींदारों को भूमि का मालिक बना दिया गया और किसानों से भूमि कर वसूलने का अधिकार दिया गया। ज़मींदारों ने किसानों पर भारी कर थोप दिए, जिन्हें वे हर हाल में चुकाने के लिए बाध्य थे। किसानों पर कर का बोझ इतना बढ़ गया कि वे आर्थिक रूप से बर्बाद हो गए। ज़मींदारों का अत्याचार और शोषण किसानों के असंतोष का एक प्रमुख कारण बना।
- रैयतवाड़ी प्रणाली: दक्षिण भारत और पश्चिमी भारत के क्षेत्रों में रैयतवाड़ी प्रणाली लागू की गई, जिसमें किसानों को सीधे ब्रिटिश सरकार को कर देना होता था। हालांकि इस प्रणाली में ज़मींदारों की भूमिका नहीं थी, फिर भी कर की दरें बहुत अधिक थीं, जिससे किसान आर्थिक संकट में आ गए।
4. कृषि उत्पादन में गिरावट और खाद्यान्न संकट
नगदी फसलों की खेती के कारण खाद्यान्न फसलों का उत्पादन घटने लगा। इससे खाद्यान्न संकट और अकाल की स्थितियां उत्पन्न हुईं।
- अकाल और भुखमरी: खाद्यान्न फसलों की जगह नगदी फसलों की खेती ने किसानों की खाद्य सुरक्षा को गंभीर खतरे में डाल दिया। कई क्षेत्रों में अकाल पड़ा, जिससे हजारों लोग भुखमरी का शिकार हो गए। 1770 के बंगाल के महान अकाल और 1866 के उड़ीसा अकाल इसके प्रमुख उदाहरण हैं।
- कृषि की विविधता का अंत: पारंपरिक कृषि प्रणाली में विविधता थी, जो स्थानीय आवश्यकताओं के अनुसार खाद्यान्न, दाल, तेल और अन्य फसलों की खेती करती थी। लेकिन नगदी फसलों के वर्चस्व के कारण यह विविधता समाप्त हो गई और कृषि एकांगी हो गई।
5. कृषि का अधिग्रहण और भूमि का पुनर्वितरण
ब्रिटिश सरकार ने बड़ी मात्रा में भूमि का अधिग्रहण किया, खासकर उन क्षेत्रों में जहां नगदी फसलों की खेती हो सकती थी। भूमि का पुनर्वितरण भी ब्रिटिश हितों के अनुसार किया गया:
- बागान और वृक्षारोपण का विकास: असम, बंगाल और दक्षिण भारत में बागान खेती (प्लांटेशन) का विकास हुआ, जहां बड़े पैमाने पर चाय, कॉफी, और अन्य नगदी फसलों की खेती की गई। इन बागानों में मजदूरी करने के लिए स्थानीय किसानों को मजबूर किया गया, जिससे उनकी सामाजिक स्थिति में गिरावट आई।
- किसानों की भूमिहीनता: जमींदारों और बागान मालिकों के अत्याचारों के कारण किसानों को अपनी जमीनें छोड़ने पर मजबूर होना पड़ा, जिससे वे भूमिहीन मजदूर बन गए। भूमि का पुनर्वितरण ब्रिटिश प्रशासन के हाथों में था, और इसे किसानों के हित में नहीं बल्कि उनके शोषण के लिए किया गया।
6. भारतीय समाज पर वाणिज्यीकरण का प्रभाव
कृषि के वाणिज्यीकरण ने भारतीय समाज की संरचना को गहराई से प्रभावित किया:
- गरीबी और सामाजिक असमानता: कृषि वाणिज्यीकरण ने किसानों की स्थिति को अत्यधिक कमजोर कर दिया। करों के बढ़ते बोझ, नगदी फसलों की खेती की बाध्यता, और कम उपज की कीमतों ने किसानों को गरीबी के गर्त में धकेल दिया। इससे ग्रामीण समाज में आर्थिक और सामाजिक असमानता बढ़ी।
- ग्रामीण विद्रोह: किसानों में बढ़ती गरीबी और शोषण के कारण ग्रामीण विद्रोह की घटनाएं बढ़ने लगीं। जैसे कि बंगाल का संथाल विद्रोह (1855-56) और बिहार का नील विद्रोह (1860)। ये विद्रोह इस बात का प्रमाण थे कि ब्रिटिश शासन की नीतियां किसानों को किस हद तक शोषित कर रही थीं।
7. 1857 की क्रांति में वाणिज्यीकरण की भूमिका
कृषि के वाणिज्यीकरण ने 1857 की क्रांति के लिए उर्वरक जमीन तैयार की:
- असंतोष का बढ़ना: वाणिज्यीकरण के कारण किसानों में असंतोष बढ़ता गया। वे आर्थिक रूप से टूट चुके थे और उनका शोषण चरम पर था। जब 1857 में विद्रोह की चिंगारी भड़की, तो किसानों ने इसमें उत्साहपूर्वक भाग लिया, क्योंकि वे ब्रिटिश शासन से मुक्ति चाहते थे।
- सामाजिक और आर्थिक उत्पीड़न: किसानों और जमींदारों के बीच की खाई बढ़ती गई। जमींदारों का उत्पीड़न और किसानों की दयनीय स्थिति ने उन्हें विद्रोह में कूदने के लिए मजबूर कर दिया। 1857 की क्रांति में यह असंतोष खुलकर सामने आया और इसने ब्रिटिश शासन की नींव को हिला कर रख दिया।
8. आर्थिक परिदृश्य और लंबी अवधि का प्रभाव
ब्रिटिश शासन के दौरान कृषि के वाणिज्यीकरण का दीर्घकालिक प्रभाव भारतीय अर्थव्यवस्था पर पड़ा:
- उपनिवेशवाद के आर्थिक लक्ष्य: ब्रिटिश सरकार का मुख्य उद्देश्य भारतीय संसाधनों का दोहन करके ब्रिटेन की आर्थिक प्रगति को बढ़ावा देना था। कृषि का वाणिज्यीकरण इसी नीति का हिस्सा था, जिससे ब्रिटिश उद्योगों को कच्चे माल की सस्ती आपूर्ति हो सके।
- भारत का औपनिवेशिक आर्थिक ढांचा: वाणिज्यीकरण ने भारत को एक औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था के रूप में विकसित किया, जो केवल ब्रिटिश साम्राज्य की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए कार्य करती थी। इस प्रक्रिया ने भारतीय उद्योग और पारंपरिक कृषि को नष्ट कर दिया और भारत को एक कच्चा माल आपूर्तिकर्ता के रूप में सीमित कर दिया।
Leave a Reply