मौर्योत्तर काल की कला और वास्तुकला:-
- मौर्योत्तर काल की कला ने बदलते सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्य को भी प्रतिबिंबित करना शुरू कर दिया।
- चट्टानों को काटकर बनाई गई गुफाओं और स्तूपों की वास्तुकला आगे बढ़ी, प्रत्येक राजवंश ने अपनी अलग-अलग विशेषताएं पेश कीं।
- इसी तरह, मूर्तिकला के विभिन्न स्कूल उभरे और मौर्योत्तर काल में मूर्तिकला की कला अपने चरम पर पहुंच गई।
- स्तूपों का विकास: स्तूप बौद्ध स्मारक स्मारक हैं जिनमें आमतौर पर बुद्ध या अन्य संत व्यक्तियों से जुड़े पवित्र अवशेष रखे जाते हैं।
- इस काल के तीन प्रमुख स्तूप भरहुत और साँची (दोनों मध्य प्रदेश में) में पाए जा सकते हैं, जिनका निर्माण मूलतः अशोक द्वारा किया गया था, लेकिन बाद में इनका विस्तार किया गया, साथ ही अमरावती और नागार्जुनकोंडा (दोनों आंध्र प्रदेश में) भी पाए जा सकते हैं।
- मौर्योत्तर काल में स्तूप बड़े और अधिक सजावटी हो गए। लकड़ी और ईंट के स्थान पर पत्थर का उपयोग अधिक होने लगा।
- शुंग राजवंश ने स्तूपों तक पहुंचने के लिए सुंदर ढंग से सुसज्जित प्रवेशद्वार के रूप में तोरण की अवधारणा प्रस्तुत की ।
- प्रारंभिक मंदिर वास्तुकला:-
- इस समय के दौरान, ब्राह्मणवादी मंदिर और देवताओं की मूर्तियों का निर्माण शुरू हुआ।
- पुराणों में वर्णित मिथकों को ब्राह्मणवादी धर्म के कथात्मक प्रतिनिधित्व में शामिल किया गया।
- मंदिरों को देवताओं की छवियों से सजाया गया था। प्रत्येक मंदिर में एक मुख्य देवता की छवि थी। ये मंदिर बुनियादी संरचनाएँ हैं जिनमें एक हॉल, एक बरामदा और पीछे एक मंदिर शामिल है।
- मंदिर तीर्थस्थल तीन प्रकार के होते थे: संधार प्रकार (प्रदक्षिणापथ के बिना), निरंधरा प्रकार (प्रदक्षिणापथ के साथ) और सर्वतोभद्र प्रकार (सभी ओर से प्रवेश योग्य)।
मौर्योत्तर काल का धर्म और समाज:- मौर्योत्तर काल में धर्म और समाज में निम्नलिखित परिवर्तन हुए।
- ब्राह्मणवाद का उदय:- मौर्योत्तर काल में लोग वैदिक धर्म, बौद्ध धर्म और जैन धर्म का पालन करते थे। हालाँकि, शुंग के शासन में ब्राह्मणवाद का पुनरुत्थान हुआ। अश्वमेध और राजसूय जैसे अनुष्ठानों में वृद्धि हुई।
- दिव्यावदान में पुष्यमित्र की क्रूरता और बौद्ध धर्म के प्रति शत्रुता की कहानियां वर्णित हैं ।
- वर्ण व्यवस्था:- मौर्योत्तर काल में चतुर्वर्ण व्यवस्था को भी पुनर्जीवित किया गया। इस प्रकार, चतुर्वर्ण व्यवस्था के मजबूत होने के साथ ही सामाजिक संरचना कठोर हो गई। पुरोहितों और शासक वर्ग का प्रभुत्व मजबूत हुआ, जबकि शूद्रों की स्थिति अपरिवर्तित रही।
- महिलाओं की स्थिति:- समाज में महिलाओं की स्थिति सामान्यतः घरेलू भूमिकाओं तक ही सीमित थी तथा उनसे मनुस्मृति में उल्लिखित कठोर आचार संहिताओं का पालन करने की अपेक्षा की जाती थी।
- इस काल में बड़ी संख्या में विदेशियों का समाज में आगमन हुआ और उन्हें आत्मसात् किया गया। इसी क्रम में विदेशियों को ‘व्रात्यक्षत्रिय’ का दर्जा दिया गया।
- मौर्योत्तर काल में परंपरागत चारों वर्ण-ब्राम्हण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र मौजूद थे, किन्तु शिल्प एवं वाण्ज्यि में उन्नति का फायदा शूद्रों को मिला।
- मौर्योत्तर काल में ही शैव धर्म के अन्तर्गत ‘पाशुपत संप्रदाय‘ का विकास हुआ, जिसके प्रवर्तक ‘लकुलिश’ को माना जाता है।
- इस काल में भागवत धर्म का विकास हुआ, जो वैष्णव संप्रदाय से जुड़ा था। कृष्ण के उपासक ‘भागवत’ कहलाते थे।
- सातवाहन शासकों के नाम का मातृप्रधान होना, स्त्रियों की अच्छी दशा को दर्शाता है। स्त्रियां धार्मिक कार्यां में पति के साथ भाग लेती थीं। कभी-कभी वे शासन कार्यां में भाग लेती थीं।
- विभिन्न धर्मों ने लचीला रूख अपनाते हुए विदेशियों को शामिल करने का प्रयास किया। यूनानी, शक, पार्थियन और कुषाण सभी भारत में अपनी-अपनी पहचान अंततः खो बैठे। वे समाज के क्षत्रिय वर्ग में समाहित हो गए।
- ब्राह्मणवाद का उदय:- मौर्योत्तर काल में लोग वैदिक धर्म, बौद्ध धर्म और जैन धर्म का पालन करते थे। हालाँकि, शुंग के शासन में ब्राह्मणवाद का पुनरुत्थान हुआ। अश्वमेध और राजसूय जैसे अनुष्ठानों में वृद्धि हुई।
मौर्योत्तर काल की भाषा और साहित्य:- मौर्योत्तर काल धार्मिक, दार्शनिक और साहित्यिक कार्यों के लिए संस्कृत के विकास के लिए महत्वपूर्ण था।
- इस अवधि के दौरान संस्कृत अधिक लोकप्रिय हो गयी और इसका प्रयोग बौद्ध ग्रंथों को लिखने में भी किया गया।
- पतंजलि: उनकी महत्वपूर्ण कृतियों में शामिल हैं: योग सूत्र (योग के सिद्धांत और अभ्यास पर संस्कृत सूत्रों (सूत्रों) का संग्रह), महाभाष्य (संस्कृत व्याकरण और भाषा विज्ञान पर एक प्राचीन ग्रंथ) और पतंजलि तंत्र (चिकित्सा ग्रंथ)।
- संस्कृत भाषा को ब्राह्मी लिपि के भिन्न संस्करण का उपयोग करके लिखा गया था। ऐसा माना जाता है कि यह लेखन कलिंग ब्राह्मी लिपि और मौर्य लिपि के बीच एक कड़ी का काम करता है।
- इस अवधि के दौरान संस्कृत अधिक लोकप्रिय हो गयी और इसका प्रयोग बौद्ध ग्रंथों को लिखने में भी किया गया।
मौर्योत्तर काल में व्यापार और वाणिज्य:- मौर्योत्तर काल में प्राचीन भारत में वाणिज्य और शिल्प का उत्कर्ष हुआ तथा आंतरिक और बाह्य व्यापार और वाणिज्य में वृद्धि हुई।
- व्यापार एवं विनिमय में मुद्राओं का प्रयोग मौर्योत्तर युग की सबसे बड़ी देन है।
- इस काल का प्रमुख उद्योग वस्त्र उद्योग था। ‘साटक’ नामक वस्त्र के लिए मथुरा; वृक्ष के रेशों से बने वस्त्र के लिए मगध; मलमल के लिए बंग एवं पुण्ड्र क्षेत्र तथा मसालों के लिए दक्षिण भारत प्रसिद्ध था।
- व्यापारिक प्रगति के कारण शिल्पकारों ने शिल्प श्रेणियों को संगठित किया। श्रेणियों के पास अपना सैन्य बल होता था।
- श्रेष्ठियों को उत्तर भारत में सेठ एवं दक्षिण भारत में शेट्ठि या चेट्टियार कहा जाता था।
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