गुप्तोत्तर काल में प्रशासन
- प्रशासन: यह अधिकांशतः केंद्रीकृत था। हर्ष के अधीन प्रशासन अधिक सामंती था।
- अधिकारियों की उपाधियाँ: गुप्त काल की तरह ही जारी रहीं। अधिकारियों का एक वर्ग कुमारामात्य के नाम से जाना जाता था।
- सामंत: इस काल के अर्ध-स्वतंत्र स्थानीय सरदार।
- भूमि अनुदान: राज्य को दी जाने वाली विशेष सेवाओं के लिए पुजारियों को दिया जाना जारी रहा।
- न्यायिक प्रणाली: गुप्त काल से भी अधिक विकसित। कानूनी मामलों को धर्मशास्त्रों द्वारा निपटाया जाता था । दीवानी और फौजदारी मामलों में अंतर था ।
गुप्तोत्तर काल में समाज:
- गुप्त काल में जिन ब्राह्मणों को भारी मात्रा में भूमि अनुदान मिला था, अब वे संसाधनों , खदानों और खनिजों पर वंशानुगत अधिकार का आनंद लेने लगे। वे ऐसी भूमि पर किराया और रॉयल्टी कमाने लगे।
- शासकों ने ब्राह्मणों को परिवार, निजी संपत्ति और व्यक्तिगत सुरक्षा के विरुद्ध सभी अपराधों के लिए दंड देने का अधिकार दिया।
- छठी शताब्दी के बाद, शहरी पतन का दूसरा चरण शुरू हुआ और ये केंद्र शहर नहीं रहे। (ह्वेन त्सांग की रिपोर्ट, जो हर्षवर्धन के शासनकाल के दौरान भारत आए थे, उत्तरी भारत में बौद्ध बस्तियों के पतन की पुष्टि करती है)। शहरी केंद्रों के पतन से ग्रामीण अर्थव्यवस्था और समाज का उदय हुआ।
- ब्राह्मणों को मृत्युदण्ड में भी छूट थी। ब्राह्मणों के लिए सबसे कठोर दण्ड देश से निकालना था। ह्वेनसांग ने भारत को ब्राह्मणों का देश कहा।
- मनुस्मृति के टीकाकार मेधातिथि के अनुसार राजा शब्द अक्षत्रिय के लिए भी प्रयुक्त हो सकता है। बशर्ते वह राज्य का स्वामी हो।
- राजपूतों का अभ्युदय इस काल की सबसे महत्वपूर्ण घटना थी, राजपूतों ने क्षत्रियों का स्थान ले लिया। 12 वीं शताब्दी तक राजपूतों की 36 जातियां प्रसिद्ध हो गई।
- गुप्तोत्तर काल में वैश्यों की स्थिति में गिरावट आई। मनुस्मृति व बौधायन धर्मसूत्र में वैश्यों को सर्वप्रथम शूद्रों के समकक्ष माना गया अलबरूनी ने वैश्यों व शूद्रों में कोई अन्तर नहीं बताया। उनके अनुसार दोनों को ही वेदों के अध्ययन व सुनने की अनुमति नहीं थी ह्वेनसांग ने शूद्रों को कृषि कार्य करने वाले के रूप में उल्लेखित किया है।
- पूर्व मध्यकाल के दौरान वैश्यों ने वैष्णव व जैन धर्म को भी प्रोत्साहन दिया।
- बिहार के 8 वीं शताब्दी के दूधपाणि अभिलेख से ज्ञात होता है कि उदयभान नामक समृद्ध व्यापारी ने तीन गांवों के लोगों की ओर से राजकीय कर दिया।
- गुप्तकाल में कुटुम्बिन का अभिप्राय शुद्र कृषक वर्ग से था लेकिन गुप्तोत्तर काल में इनकी स्थिति स्वतन्त्र किसानों की तरह हो गई, यह भूमि के स्वामी हो गये।
- गुप्तोत्तर काल में त्यधसीरिन व सीरिन वे किसान थे जो बटाई पर कार्य करते थे। गुप्तोत्तर काल में ही कायस्थों का एक जाति के रूप में उदय हुआ। कायस्थों का सर्वप्रथम उल्लेख याज्ञवल्क्य स्मृति में किया गया। व भूराजस्व भू-अनुदान व हिसाब-किताब संबंधी कार्यों में वृद्धि के कारण कायस्थों की संख्या में वृद्धि हुई।
- क्षेमेन्द्र के अनुसार कायस्थों के उदय से ब्राह्मणों के अधिकारों पर आघात पहुंचा। कायस्थों ने ब्राह्मणों के एकाधिकार को समाप्त कर दिया।
- अस्पृश्य जातियों की संख्या में वृद्धि हुई।
- दामोदरगुप्त (7वीं शताब्दी) का कुट्टनीमतम् जैसे उत्तर-गुप्तकालीन साहित्य का संबंध ग्रामीण जीवन से है। इस काल में द्विज और शूद्र के बीच का भेद समाप्त होना शुरू हुआ।
- नई जातियों का प्रसार : भूमि संपत्ति के असमान वितरण ने सामाजिक रैंकों का निर्माण किया जो वर्ण संबंधी विचारों के आधार पर सामाजिक स्थिति को काटते हैं। शासक अभिजात वर्ग के हिस्से के रूप में क्षत्रिय वर्ण में विदेशी जातीय समूहों और स्वदेशी आदिवासी सरदारों को शामिल करने और शूद्र वर्ण में संस्कृति-परिवर्तित जनजातियों ने न केवल उनकी संख्या बढ़ाई बल्कि वर्ण-विभाजित समाज को भी बदल दिया। शास्त्री या कायस्थ समुदाय उस समय की सामाजिक-आर्थिक ताकतों का एक उत्पाद था।
- महिलाएं: यौवन से पहले विवाह को प्राथमिकता दी जाती थी, औपचारिक शिक्षा से वंचित रखा जाता था, संपत्ति के अधिकार से वंचित रखा जाता था, उन्हें विभिन्न बलिदानों और समारोहों से वंचित रखा जाता था, सती प्रथा को सामाजिक स्वीकृति मिली। विवाह के बाद महिलाओं के गोत्र में परिवर्तन का इतिहास 5वीं शताब्दी ई. के बाद का माना जा सकता है।
- इस काल में स्त्रियों की स्थिति में भी गिरावट आई, बाल विवाह व सती प्रथा अत्याधिक प्रचलन में थी। अंगिरा, हारीत आदि पूर्व मध्यकालीन स्मृतियां व अपरार्क, विज्ञानेश्वर आदि निबंधकारों ने सती प्रथा की प्रशंसा की।
शूद्रों की स्थिति
- समाज में शूद्रों की संख्या सर्वाधिक थी। इस काल में अस्पृश्य जातियों की संख्या तथा अस्पृश्यता की भावना में वृद्धि हुई। इस काल की महत्वपूर्ण विशेषता है-कृषि कार्य का आमतौर पर शूद्रों के द्वारा किया जाना। शूद्रों में कुछ वर्णसंकर जातियां भी थीं।
- याज्ञवल्क्य द्वारा वर्णित मीमांसा के अनुसार, अनुलोम एवं प्रतिलोम विवाहों के परिणामस्वरूप अनेक वर्णसंकर जातियों की उत्पत्ति हुई। अनुलोम जातियां द्विज जातियां थीं, इसलिए उन्हें यज्ञोपवीत संस्कार का अधिकार था।
- इस काल में जन्मी वर्णसंकर जातियों में कायस्थ सर्वाधिक उल्लेखनीय हैं। सबसे निम्न जाति अंत्यज थी, जिनमें सर्वाधिक निम्न चंडाल थे।
गुप्तोत्तर काल में अर्थव्यवस्था:
- किसानों, कारीगरों और व्यापारियों का अपनी-अपनी बस्तियों से जुड़ाव और प्रतिबंधों के कारण बंद अर्थव्यवस्था का उदय हुआ।
- छठी शताब्दी के मध्य में बाइज़ेंटियम ने रेशम के कीड़ों का प्रजनन करना सीखा । परिणामस्वरूप, रेशम व्यापार को नुकसान हुआ।
- हुना आक्रमणों ने मध्य और पश्चिमी एशिया के साथ बचे-खुचे संबंधों को मिटा दिया।
- तटीय शहरों और आंतरिक शहरों के बीच तथा शहरों और गांवों के बीच संपर्क कमजोर होने के कारण लंबी दूरी का आंतरिक व्यापार भी प्रभावित हुआ।
- बाद के गुप्त सिक्कों में सोने की मात्रा कुषाण सिक्कों की तुलना में आधे से भी कम थी।
- दैनिक लेन-देन में वस्तु विनिमय और विनिमय के माध्यम के रूप में कौड़ियों के उपयोग के साक्ष्य मिलते हैं।
- कृषि: जनजातीय सीमांत क्षेत्रों में भूमि-अनुदान से नई भूमि पर खेती हो सकी।
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