आरण्यक
आरण्यक का अर्थ है–
- वेदों के सात प्रमुख आरण्यक हैं, सभी का नाम अरण्य शब्द से लिया गया है, जिसका अर्थ है ‘वन’। जंगल में पढ़ने के कारण ही उन्हें यह नाम मिला। आरण्यक और सायण, नियमित ब्राह्मणों के विपरीत, तैत्तिरीय आरण्यक में रहते हैं, जो बताता है कि उन्हें गाँव में क्यों पढ़ा जाना चाहिए-
- यज्ञ और अन्य अनुष्ठान केवल उन व्यक्तियों के लिए आवश्यक हैं जो घर में रहते हैं और गृहस्थ जीवन जीते हैं। हालांकि, यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि वैदिक अनुष्ठानों का उद्देश्य न केवल वित्तीय लाभ लाना है, बल्कि निरंतर अभ्यास के माध्यम से मानसिक शुद्धता भी लाना है।
- पवित्रता प्राप्त करने के बाद, ध्यान और ध्यान को बेहतर बनाने के लिए व्यक्ति को जंगल में एकांतवास करना चाहिए। गृहस्थ के उद्देश्य के लिए, ब्राह्मण सच्चे त्याग के अनुष्ठानों का आग्रह करते हैं।
- आरण्यक वानप्रस्थ के लिए हैं, जो पारिवारिक जीवन त्याग कर तप और अन्य धार्मिक प्रथाओं के लिए जंगलों में रहते हैं। वे समारोहों के साथ-साथ उनके रूपकात्मक व्याख्याओं की व्याख्या भी प्रदान करते हैं। विंटरनिट्ज़ उन्हें “वन लेखन” के रूप में संदर्भित करते हैं जिनका अध्ययन लकड़ी के साधुओं द्वारा किया जा सकता है।
आरण्यकों का उद्भव
- वैदिक संहिताओं के पश्चात् क्रम में ब्राह्मण ग्रन्थ आते हैं ।
- ब्राह्मणों के बाद आरण्यक आते हैं और उसके बाद उपनिषद् ।
- आरण्यक , ब्राह्मण-ग्रन्थों के पूरक हैं ।
- एक ओर आरण्यक ब्राह्मणों के परिशिष्ट के रूप में हैं तो दूसरी ओर उपनिषद् आरण्यकों के अंश हैं ।
- इस प्रकार कहा जा सकता है कि आरण्यकों का प्रारम्भिक भाग ब्राह्मण हैं और अन्तिम भाग उपनिषद् है ।
- ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद् इतने मिश्रित हैं कि उनके मध्य किसी प्रकार की सीमारेखना खींचना अत्यन्त कठिन है ।
- वेदों और ब्राह्मण-ग्रन्थों में यज्ञों का विस्तृत वर्णन है ।
- ब्राह्मणों में तो यज्ञ अत्यन्त कष्टसाध्य, दुर्बोध और नीरस है, इतना ही नहीं वह यज्ञ अत्यन्त खर्चालु है , अर्थात् इनके आयोजन के लिए अधिक धन की आवश्यकता होती है ।
- अतः इन्हें केवल, गृहस्थी, राजा और धनी व्यक्ति ही कर सकता था ।
- दूसरी ओर दुर्बोधता से बचने के लिए आरण्यकों की रचना की गई ।
- इनमें यज्ञों का विधि-विधान अत्यन्त सरल और कम साधनों के लिए हैं ।
- इन्हें ब्रह्मचारी, वानप्रस्थी और संन्यासी भी कर सकते हैं।
आरण्यकों का महत्त्व वैदिक तत्त्वमीमांसा के इतिहास में आरण्यकों का विशेष महत्त्व स्वीकार किया जाता है। आरण्यक, ब्राह्मण-ग्रन्थों और उपनिषदों को जोडने वाली कडी है । ब्राह्मण-ग्रन्थों में जो यज्ञों के दार्शनिक और आध्यात्मिक पक्ष का जो अंकुरण हुआ है, उसका पल्लवित रूप आरण्यकों में ही है । इनमें यज्ञ के गूढ़ रहस्यों का उद्घाटन किया गया है।
- वेदों की गहन व्याख्या: आरण्यकों में वेदों के मंत्रों और सूक्तियों की गहन व्याख्या की गई है। इन ग्रंथों में वेदों के रहस्यमयी और आध्यात्मिक अर्थों को उजागर किया गया है।
- उपनिषदों का आधार: आरण्यक ग्रंथों को उपनिषदों का आधार माना जाता है। उपनिषदों में आत्मज्ञान और ब्रह्मज्ञान के विषय में विस्तृत चर्चा की गई है, जो आरण्यकों में ही शुरू हुई थी।
- वनवासी जीवन और आध्यात्म: आरण्यक ग्रंथों में वनवासी जीवन और आध्यात्मिक साधना के महत्व पर बल दिया गया है। इन ग्रंथों में बताया गया है कि कैसे वन में रहकर एक व्यक्ति आत्मज्ञान प्राप्त कर सकता है।
- प्राणविद्या: आरण्यक ग्रंथों में प्राणविद्या का विशेष महत्व है। प्राणविद्या के माध्यम से व्यक्ति अपने शरीर और मन को नियंत्रित कर सकता है और आत्मज्ञान प्राप्त कर सकता है।
- यज्ञ और कर्मकांड: आरण्यकों में यज्ञ और कर्मकांडों का भी वर्णन किया गया है। इन ग्रंथों में बताया गया है कि कैसे यज्ञों के माध्यम से देवताओं को प्रसन्न किया जा सकता है और मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है।
- दर्शन और दर्शनशास्त्र: आरण्यक ग्रंथों में दर्शन और दर्शनशास्त्र के विषय में भी चर्चा की गई है। इन ग्रंथों में ब्रह्मांड की उत्पत्ति, जीवन का अर्थ और मोक्ष के मार्ग के बारे में विस्तार से बताया गया है।
- भारतीय संस्कृति पर प्रभाव: आरण्यक ग्रंथों ने भारतीय संस्कृति और दर्शन को गहराई से प्रभावित किया है। इन ग्रंथों के विचारों ने भारतीय दर्शन के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
आरण्यकों का प्रतिपाद्य विषय:-
- ब्रह्मज्ञान: आरण्यकों का सबसे महत्वपूर्ण विषय ब्रह्मज्ञान यानी परम सत्य की खोज है। इन ग्रंथों में ब्रह्मांड की उत्पत्ति, जीवन का अर्थ और मोक्ष के मार्ग के बारे में विस्तृत चर्चा की गई है।
- आत्मज्ञान: आरण्यकों में आत्मज्ञान यानी आत्मा की खोज पर भी जोर दिया गया है। इन ग्रंथों में बताया गया है कि कैसे व्यक्ति अपने भीतर के आत्मा को खोजकर मुक्ति प्राप्त कर सकता है।
- उपासना पद्धतियाँ: आरण्यकों में विभिन्न प्रकार की उपासना पद्धतियों का वर्णन किया गया है। इनमें यज्ञ, तपस्या, ध्यान आदि शामिल हैं।
- यज्ञ और कर्मकांड: आरण्यकों में यज्ञ और कर्मकांडों का भी वर्णन किया गया है। इन ग्रंथों में बताया गया है कि कैसे यज्ञों के माध्यम से देवताओं को प्रसन्न किया जा सकता है और मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है।
- प्रकृति: आरण्यकों में प्रकृति के विभिन्न तत्वों जैसे जल, अग्नि, वायु आदि का भी वर्णन किया गया है। इन ग्रंथों में बताया गया है कि कैसे प्रकृति में ब्रह्म का निवास होता है।
- दर्शन और दर्शनशास्त्र: आरण्यकों में दर्शन और दर्शनशास्त्र के विषय में भी चर्चा की गई है। इन ग्रंथों में विभिन्न दार्शनिक सिद्धांतों का विश्लेषण किया गया है।
आरण्यकों के रचयिता:-
- आरण्यक ब्राह्मण-ग्रन्थों का ही एक भाग है । अतः आरण्यकों के रचयिता ब्राह्मण के रचनाकार ही माने जाते हैं ।
- कुछ आरण्यकों के रचनाकार इस प्रकार है—
- ऐतरेय-ब्राह्मण के रचनाकार महिदास ऐतरेय है । वही ऐतरेय-आरण्यक के भी रचनाकार हैं
- ऐतरेय आरण्यक के 4th आरण्यक के प्रवक्ता आश्वलायन और पञ्चम आरण्यक के प्रवक्ता शौनक ऋषि हैं ।
- शांखायनारण्यक के प्रवक्ता गुण शांखायन हैं । इनके गुरु का नाम कहोल कौषीतकि था
- बृहदारण्यक के प्रवक्ता महर्षि याज्ञवल्क्य हैं । ये सम्पूर्ण शतपथ-ब्राह्मण के भी प्रवक्ता हैं । उसी ब्राह्मण का अन्तिम भाग बृहदारण्यक है ।
- कृष्ण-यजुर्वेदीय तैत्तिरीयारण्यक के प्रवक्ता कठ ऋषि हैं ।
- मैत्रायणीयारण्यक भी कृष्णयजुर्वेदीय है ।इसके प्रवक्ता भी कठ ऋषि ही हैं , क्योंकि मैत्रायणीयों की गणना १२ कठों के अन्तर्गत होती है ।
- तलवकार आरण्यक जैमिनीय उपनिषद् ब्राह्मण ही है । इसके प्रवक्ता आचार्य जैमिनि ही है ।
उपलब्ध आरण्यक ग्रन्थ सम्प्रति 6 आरण्यक उपलब्ध है ।
(1.) ऋग्वेदीय-आरण्यक:- ऐतरेय आरण्यक, कौषीतकि आरण्यक या शांखायन आरण्यक
(2.) शुक्ल-यजुर्वेदीयारण्यक:- बृहदारण्यक । यह माध्यन्दिन और काण्व दोनों शाखाओं में प्राप्य है ।
(3.) कृष्ण-यजुर्वेदीयारण्यक
- तैत्तिरीय आरण्यक
- मैत्रायणी आरण्यक
(4.) सामवेदीयारण्यक:- सामवेद की जैमिनिशाखा का तलवकारारण्यक है । इसको जैमिनीय-उपनिषद् ब्राह्मण भी कहते हैं । सामवेद की कौथुम शाखा का पृथक् आरण्यक नहीं है । छान्दोग्य उपनिषद् कौथुम-शाखा से सम्बद्ध है । इसके ही कुछ अंशों को छान्दोग्य आरण्यक कहा जाता है ।
(5.) अथर्ववेद:-अथर्ववेद का कोई पृथक् आरण्यक नहीं है । गोपथ-ब्राह्मण के ही ब्रह्मविद्या-परक कुछ अंशों को आरण्यक कह सकते हैं ।
प्रमुख आरण्यक आरण्यकों के मुख्य ग्रंथ निम्नलिखित है :–
(1.) ऐतरेय आरण्यक :-इसका संबंध ऋग्वेद से है। ऐतरेय के भीतर पाँच मुख्य अध्याय (आरण्यक) हैं , इन्हें प्रपाठक भी कहा जाता है ।
- प्रपाठक अध्यायों में विभक्त है । इसके प्रथम तीन आरण्यक के रचयिता ऐतरेय, चतुर्थ के आश्वलायन तथा पंचम के शौनक माने जाते हैं।
- डाक्टर कीथ इसे निरुक्त की अपेक्षा अर्वाचीन मानकर इसका रचनाकाल षष्ठ शताब्दी विक्रमपूर्व मानते हैं, परंतु वस्तुत: यह निरुक्त से प्राचीनतर है।
- ऐतरेय के प्रथम तीन आरण्यकों के कर्ता महिदास हैं इससे उन्हें ऐतरेय ब्राह्मण का समकालीन मानना न्याय्य है।
- इस आरण्यक में प्राणविद्या, प्रज्ञा का महत्त्व, आत्मस्वरूप का वर्णन, वैदिक-अनुष्ठान, स्त्रियों का महत्त्व , शास्त्रीय महत्त्व और आचार-संहिता के बारे में विस्तार से वर्णन है ।
(2.) शांखायन:- इसका भी संबंध ऋग्वेद से है।
- यह ऐतरेय आरण्यक के समान है तथा पंद्रह अध्यायों में विभक्त है जिसका एक अंश कौषीतकि उपनिषद् के नाम से प्रसिद्ध है।
- इसके सातवें और आठवें अध्याय को संहितोपनिषद् कहते हैं ।
- इसी को कौषीतकि-आरण्यक भी कहा जाता है ।
- इसमें आध्यात्मिक-अग्निहोत्र का वर्णन विस्तार से किया गया है ।
- इसमें आचार्यों की वंश-परम्परा भी दी गई है ।
(3.) बृहदारण्यक:- वस्तुत: शुक्ल युजर्वेद का एक आरण्यक ही है ।
- यह शतपथ-ब्राह्मण के अन्तिम 14 वें काण्ड के अन्त में दिया गया है ।
- इसको आरण्यक की अपेक्षा उपनिषद् के रूप में अधिक मान्यता प्राप्त है ।
- परंतु आध्यात्मिक तथ्यों की प्रचुरता के कारण यह उपनिषदों में गिना जाता है।
(4.) तैत्तिरीय आरण्यक :-यह कृष्ण-यजुर्वेदीय तैत्तिरीय-शाखा का आरण्यक है ।
- यह दस परिच्छेदों (प्रपाठकों) में विभक्त है, जिन्हें “अरण” कहते हैं।
- प्रपाठकों के उपविभाग अनुवाक है । प्रपाठकों का नामकरण उनके प्रथम पद के आधार पर किया गया है ।
- इनमें सप्तम, अष्टम तथा नवम प्रपाठक मिलकर “तैत्तिरीय उपनिषद” कहलाते हैं।
- प्रपाठक 10 को महानारायणीय-उपनिषद् कहा जाता है ।
- इस प्रकार 1 से 6 प्रपाठक तक ही तैत्तिरीयारण्यक है ।
(5.) मैत्रायणीय आरण्यक :- यह कृष्ण-यजुर्वेदीय मैत्रायणीय शाखा का आरण्यक है ।
- इसको मैत्रायणीय उपनिषद् भी कहते हैं ।
- यह मैत्रायणी संहिता के परिशिष्ट के रूप में अन्त में उपलब्ध है ।
- इसमें ओ३म् का महत्त्व, ब्रह्म के अनेक रूप, चक्रवर्ती राजाओं के नाम , मन का महत्त्व , ज्ञान के विघ्न, जीवात्मा आदि के बारे में बताया गया है ।
(6.) तवलकार (आरण्यक) :-यह सामवेद की जैमिनि-शाखा का आरण्यक है।
- इसको जैमिनीय उपनिषद् ब्राह्मण भी कहते हैं ।
- इसमें चार अध्याय हैं और प्रत्येक अध्याय में कई अनुवाक।
- चतुर्थ अध्याय के दशम अनुवाक में प्रख्यात तवलकार (या केन) उपनिषद् है।
ब्राह्मण ग्रंथ
ब्राह्मण ग्रंथ :-
ब्राह्मण ग्रंथ वेदों के बाद रचे गए ग्रंथ हैं जो संस्कृत भाषा में लिखे गए गद्य ग्रंथ हैं।। ये ग्रंथ वेदों के मंत्रों और सूक्तियों की गहन व्याख्या करते हैं। ब्राह्मण शब्द का शाब्दिक अर्थ ‘ब्रह्म’ से संबंधित है, जो परम सत्य या ब्रह्मांड को दर्शाता है। ये ग्रंथ यज्ञों के विधानों, देवताओं की पूजा और विभिन्न धार्मिक अनुष्ठानों के बारे में विस्तृत जानकारी प्रदान करते हैं।
ब्राह्मण ग्रंथों का महत्व :-
- वेदों की गहन व्याख्या: ब्राह्मण ग्रंथ वेदों के मंत्रों के अर्थ को समझने में हमारी मदद करते हैं। वेदों में दिए गए संक्षिप्त मंत्रों को ब्राह्मण ग्रंथों में विस्तार से समझाया गया है।
- कर्मकांडों की विधियाँ: ब्राह्मण ग्रंथों में विभिन्न कर्मकांडों, जैसे कि जन्म, विवाह, मृत्यु, और श्राद्ध आदि के लिए विस्तृत विधियाँ बताई गई हैं। इनमें कर्मकांडों के समय क्या करना चाहिए, क्या बोलना चाहिए, और क्या पहनना चाहिए, इसका विस्तृत वर्णन है।
- दर्शन और दर्शनशास्त्र: ब्राह्मण ग्रंथों में दर्शन और दर्शनशास्त्र के विषय में भी चर्चा की गई है। इन ग्रंथों में ब्रह्मांड, जीवन, और आत्मा के बारे में गहन विचार किए गए हैं।
- भारतीय संस्कृति और सभ्यता: ब्राह्मण ग्रंथ भारतीय संस्कृति और सभ्यता के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। ये ग्रंथ हमें भारतीय समाज की संरचना, रीति-रिवाजों और विश्वासों के बारे में जानकारी देते हैं।
- समाज और धर्म: ब्राह्मण ग्रंथों ने भारतीय समाज को एक साथ बांधने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इन ग्रंथों में वर्णित नियमों और विधानों ने समाज में एक व्यवस्था स्थापित करने में मदद की।
- ऐतिहासिक महत्व: ब्राह्मण ग्रंथ हमें प्राचीन भारत के इतिहास और संस्कृति के बारे में जानकारी देते हैं। इन ग्रंथों में वर्णित कथाएं और किवदंतियां हमें प्राचीन भारत के लोगों के जीवन और विचारों के बारे में बताती हैं।
- ब्रह्मांड, देवताओं, और ऋषियों से संबंधित कथाएँ: ब्राह्मण ग्रंथों में ब्रह्मांड की उत्पत्ति, देवताओं की कथाएँ, और ऋषियों के चरित्रों से संबंधित अनेक कथाएँ शामिल हैं। ये कथाएँ नैतिक शिक्षाओं और जीवन के मूल्यों को दर्शाती हैं।
ब्राह्मण ग्रंथों की विशेषताएं:
- गद्य में रचना: ब्राह्मण ग्रंथ गद्य में लिखे गए हैं, जबकि वेद मुख्यतः पद्य में हैं।
- विस्तृत व्याख्या: ये ग्रंथ वेदों के मंत्रों की विस्तृत व्याख्या करते हैं।
- यज्ञ और कर्मकांड: इन ग्रंथों में यज्ञों और कर्मकांडों का विस्तृत वर्णन मिलता है।
- कथा और उपमा: ब्राह्मण ग्रंथों में कई कथाएं और उपमाएं भी मिलती हैं, जो धार्मिक सिद्धांतों को समझने में मदद करती हैं।
प्रमुख ब्राह्मण ग्रंथ :-
- ऐतरेय ब्राह्मण: यह ऋग्वेद से संबंधित है और इसमें यज्ञों के विधानों और ब्रह्मांड की उत्पत्ति के बारे में विस्तृत जानकारी दी गई है।
- शतपथ ब्राह्मण: यह भी ऋग्वेद से संबंधित है और यह सबसे बड़े ब्राह्मण ग्रंथों में से एक है। इसमें यज्ञों के विधानों, देवताओं की पूजा और ब्रह्मांड के रहस्यों के बारे में विस्तृत चर्चा की गई है।
- तैत्तिरीय ब्राह्मण: यह कृष्ण यजुर्वेद से संबंधित है और इसमें यज्ञों के विधानों, देवताओं की पूजा और ब्रह्मज्ञान के बारे में जानकारी दी गई है।
- शांखायन ब्राह्मण: यह ऋग्वेद से संबंधित है और इसमें यज्ञों के विधानों और विभिन्न देवताओं की पूजा के बारे में जानकारी दी गई है।
- गोपथ ब्राह्मण: यह अथर्ववेद से संबंधित है और इसमें यज्ञों के विधानों और विभिन्न जादुई क्रियाओं के बारे में जानकारी दी गई है।
षड्दर्शन
षड्दर्शन: भारतीय दर्शन की छह प्रणालियाँ:- षड्दर्शन शब्द का अर्थ है 6 दर्शन। ये भारतीय दर्शन की छह प्रमुख प्रणालियाँ हैं, जिन्होंने भारतीय विचार और संस्कृति को गहराई से प्रभावित किया है।
षड्दर्शन के दो मुख्य समूह:-
षड्दर्शन को दो मुख्य समूहों में विभाजित किया जा सकता है।
आस्तिक दर्शन: वेद को प्रामाणिक मानने वाले दर्शन को ‘आस्तिक’ कहा जाता है।
- सांख्य दर्शन
- योग दर्शन
- न्याय दर्शन
- वैशेषिक दर्शन
- वेदांत दर्शन
- मीमांसा दर्शन
नास्तिक दर्शन: वेद को अप्रमाणिक मानने वाले दर्शन को ‘नास्तिक’ कहा जाता है।
- चार्वाक दर्शन: यह सबसे प्राचीन भारतीय नास्तिक दर्शनों में से एक है। यह दर्शन भौतिकवाद और आनंदवाद पर आधारित है। चार्वाक दर्शन के अनुसार, केवल भौतिक सुख ही जीवन का लक्ष्य है।
- बौद्ध दर्शन: हालांकि बौद्ध दर्शन का मूल उद्देश्य दुःख से मुक्ति प्राप्त करना है, लेकिन यह वेदों के कुछ सिद्धांतों को नहीं मानता।
- जैन दर्शन: जैन दर्शन अहिंसा और आत्मशुद्धि पर केंद्रित है। यह भी वेदों के कुछ सिद्धांतों को नहीं मानता।
षड्दर्शन का संक्षिप्त परिचय
- सांख्य दर्शन: इस दर्शन में प्रकृति (प्रकृतिक) और पुरुष (पुरुष) दो मूल तत्वों के बारे में बताया गया है।
- योग दर्शन: यह दर्शन मन को नियंत्रित करने और आत्म-साक्षात्कार की विधि पर केंद्रित है।
- न्याय दर्शन: तर्क और ज्ञान के माध्यम से सत्य की खोज इस दर्शन का मुख्य उद्देश्य है।
- वैशेषिक दर्शन: पदार्थवाद पर आधारित यह दर्शन भौतिक जगत के निर्माण और संरचना की व्याख्या करता है।
- मीमांसा दर्शन: धर्म और कर्मकांड पर केंद्रित, यह दर्शन वेदों के अर्थ और अनुष्ठानों की व्याख्या करता है।
- वेदांत दर्शन: यह दर्शन ब्रह्म (परमात्मा) और आत्मा के संबंध पर केंद्रित है।
षड्दर्शन का महत्व:-
- षड्दर्शन ने भारतीय विचार और संस्कृति को गहराई से प्रभावित किया है।
- इन दर्शनों ने मन, शरीर, आत्मा और ब्रह्मांड के बारे में गहन विचार-विमर्श किया है।
- इन दर्शनों के सिद्धांतों का प्रभाव भारतीय धर्म, कला, साहित्य और समाज पर देखा जा सकता है।
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