द्वितीय विश्व युद्ध के बाद वैश्विक अर्थव्यवस्था को पुनर्निर्माण करने के लिए स्थापित
ब्रेटन वुड्स प्रणाली द्वितीय विश्व युद्ध के बाद वैश्विक अर्थव्यवस्था को स्थिर करने और पुनर्निर्माण करने के लिए स्थापित एक अंतरराष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था थी।
यह प्रणाली 1944 में न्यू हैम्पशायर के ब्रेटन वुड्स में आयोजित दो सम्मेलनों से निकली थी, जिसमें 44 देशों ने भाग लिया था।
ब्रेटन वुड्स प्रणाली के मुख्य तत्व:
- डॉलर-सोने का मानक: अमेरिकी डॉलर को सोने में 35 डॉलर प्रति औंस की निश्चित दर पर तय किया गया था। अन्य देशों की मुद्राओं को अमेरिकी डॉलर से स्थिर विनिमय दर पर आंका गया था।
- अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ): आईएमएफ की स्थापना देशों को वित्तीय सहायता प्रदान करने, विनिमय दर स्थिरता को बढ़ावा देने और अंतरराष्ट्रीय सहयोग को प्रोत्साहित करने के लिए की गई थी।
- विश्व बैंक: विश्व बैंक (जिसे पहले अंतर्राष्ट्रीय पुनर्निर्माण और विकास बैंक (आईबीआरडी) कहा जाता था) की स्थापना युद्ध से तबाह हुए देशों के पुनर्निर्माण और विकास में सहायता करने के लिए की गई थी।
ब्रेटन वुड्स प्रणाली के लाभ:
- वैश्विक व्यापार और निवेश में वृद्धि: इस प्रणाली ने अंतरराष्ट्रीय व्यापार और निवेश के लिए एक स्थिर और अनुमानित वातावरण प्रदान किया, जिससे वैश्विक अर्थव्यवस्था के पुनर्निर्माण और विकास में मदद मिली।
- वित्तीय स्थिरता: डॉलर-सोने के मानक ने मुद्रास्फीति को नियंत्रित करने और अंतरराष्ट्रीय वित्तीय प्रणाली में स्थिरता बनाए रखने में मदद की।
- अंतर्राष्ट्रीय सहयोग: आईएमएफ और विश्व बैंक ने देशों को आर्थिक नीतियों पर समन्वय करने और वैश्विक चुनौतियों का समाधान करने के लिए एक मंच प्रदान किया।
ब्रेटन वुड्स प्रणाली की चुनौतियाँ और पतन:
- अमेरिकी आर्थिक प्रभुत्व: डॉलर-सोने के मानक ने अमेरिकी अर्थव्यवस्था को विश्व अर्थव्यवस्था के केंद्र में रखा, जिससे कुछ देशों को नाराजगी हुई।
- अमेरिकी सोने के भंडार में कमी: 1960 के दशक में, अमेरिकी सोने के भंडार में कमी आई जिससे डॉलर-सोने के मानक को बनाए रखना मुश्किल हो गया।
- अंतर्राष्ट्रीय तरलता की कमी: डॉलर-सोने का मानक वैश्विक अर्थव्यवस्था की बढ़ती जरूरतों को पूरा करने के लिए पर्याप्त अंतर्राष्ट्रीय तरलता प्रदान नहीं कर सका।
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