आरण्यक ग्रंथ, उपनिषदों की नींव हैं, जो वेदों का हिस्सा हैं। इनकी रचना ईसा पूर्व 8वीं और 2वीं शताब्दी के बीच हुई थी। इन ग्रंथों का नाम “वन” (अरण्य) शब्द से आया है, क्योंकि इन्हें वन में रहने वाले वानप्रस्थ आश्रमियों द्वारा पढ़ा और समझा जाता था।
आरण्यकों में मुख्य रूप से यज्ञों से जुड़े प्रतीकात्मक और दार्शनिक विचारों का विस्तारपूर्वक वर्णन है। इनमें कर्मकांडों के पीछे छिपे गूढ़ अर्थों को उजागर किया गया है। धीरे-धीरे, इन विचारों ने आध्यात्मिकता और ब्रह्मज्ञान पर केंद्रित अधिक गहन दार्शनिक चिंतन को जन्म दिया, जो उपनिषदों में परवान चढ़ा।
1. ब्रह्मविद्या: आरण्यकों में ब्रह्म (परम सत्ता) की अवधारणा का प्रारंभिक रूप मिलता है। वे ब्रह्म को सृष्टि का आधार, सर्वव्यापी और शाश्वत बताते हैं।
2. आत्मतत्व: आत्मा (अंतःस्थल) की प्रकृति और उसका ब्रह्म से संबंध पर भी विचार किया गया है। आत्मा को अमर और ब्रह्म का अंश माना गया है।
3. कर्म और ज्ञान: कर्मकांडों के महत्व पर बल देते हुए, आरण्यक कर्म और ज्ञान के बीच संबंध स्थापित करते हैं। वे ज्ञान को मोक्ष प्राप्ति का साधन मानते हैं।
4. उपासना और प्रतीकवाद: यज्ञों और अनुष्ठानों से जुड़े प्रतीकों और उनके आध्यात्मिक अर्थों का विस्तृत वर्णन मिलता है।
5. रहस्यवाद: कुछ आरण्यक ग्रंथों में रहस्यवादी विचारों का भी समावेश है, जो आत्मा और ब्रह्म के मिलन की अनुभूति पर केंद्रित हैं।
आरण्यकों में प्रस्तुत विचारों ने उपनिषदों के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
उपनिषदों ने ब्रह्म, आत्मा, कर्म, ज्ञान आदि विषयों पर गहन दार्शनिक चिंतन प्रस्तुत किया।
वेदांत दर्शन, जो भारतीय दर्शन की प्रमुख धारा है, का आधार भी आरण्यकों और उपनिषदों में स्थापित विचारों पर ही है।
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