राष्ट्रीय वन नीति (The National Forest Policy)
भारत की राष्ट्रीय वन नीति का उद्देश्य देश के वन संसाधनों का सही तरीके से प्रबंधन करना, पारिस्थितिकी संतुलन बनाए रखना और वन्यजीवों के संरक्षण के साथ-साथ लोगों के सामाजिक और आर्थिक कल्याण को बढ़ावा देना है। इसे पहली बार 1952 में लागू किया गया था और बाद में इसे 1988 में पुनरीक्षित किया गया।
राष्ट्रीय वन नीति के मुख्य उद्देश्य:
- वनों की वृध्दि और संरक्षण:
- वन संसाधनों का संरक्षण और उनका वृध्दि करना ताकि पारिस्थितिकी तंत्र संतुलित रहे और प्राकृतिक आपदाओं जैसे बाढ़, सूखा, और भूमि कटाव से सुरक्षा मिल सके।
- वन को एक प्राकृतिक संसाधन के रूप में सही तरीके से प्रबंधित करना।
- जैव विविधता का संरक्षण:
- वन्यजीवों और पौधों की प्रजातियों की विविधता को बनाए रखना और उनकी संरक्षण कार्यों को प्राथमिकता देना।
- दुर्लभ और संकटग्रस्त प्रजातियों का संरक्षण करना।
- स्थानीय लोगों की कल्याण:
- वनवासियों और अन्य स्थानीय समुदायों को वन उत्पादों के अधिकार देना, जिससे उनके जीवन स्तर में सुधार हो सके।
- वन संसाधनों से प्राप्त होने वाले उत्पादों का इस्तेमाल करते हुए इन समुदायों को रोजगार के अवसर प्रदान करना।
- वनों का सतत उपयोग:
- वनों से संसाधनों का सतत उपयोग करना, ताकि उनकी क्षमता समाप्त न हो।
- वनों की कृषि और वानिकी गतिविधियों के माध्यम से एक सतत और दीर्घकालिक योजना लागू करना।
- वनों की पर्यावरणीय सेवाएँ:
- वनों का उपयोग जलवायु परिवर्तन को नियंत्रित करने, जल की आपूर्ति को बनाए रखने और भूमि की उर्वरता को संरक्षित करने के लिए करना।
- वन नीतियों को इस प्रकार से डिजाइन करना ताकि वे जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को कम करें।
- वन्यजीवों और पारिस्थितिकी तंत्र का संरक्षण:
- वन्यजीवों के प्राकृतिक आवास का संरक्षण और उनकी प्रजातियों का संरक्षण सुनिश्चित करना।
- पारिस्थितिकी तंत्र को संरक्षित करने के लिए वन्यजीवों की सुरक्षा नीति का निर्माण करना।
- आर्थिक लाभ और रोजगार सृजन:
- वन उद्योगों के माध्यम से रोजगार के अवसर उत्पन्न करना।
- वानिकी, बांस, और अन्य वन उत्पादों के व्यापार को बढ़ावा देना।
1988 की वन नीति का प्रमुख परिवर्तन:
- वनों का सामुदायिक उपयोग:
- 1988 की नीति में यह विशेष ध्यान दिया गया कि स्थानीय समुदायों को वन संसाधनों का सामुदायिक उपयोग करने का अधिकार दिया जाए, जिससे उनके जीवन स्तर में सुधार हो सके।
- पर्यावरणीय संतुलन:
- वनों के माध्यम से पारिस्थितिकी तंत्र की रक्षा और पर्यावरणीय संतुलन बनाए रखना प्राथमिक उद्देश्य माना गया।
- कृषि और वानिकी का संयोजन:
- कृषि और वानिकी के बीच तालमेल स्थापित करने का प्रयास किया गया ताकि भूमि का सर्वोत्तम उपयोग हो सके और पर्यावरण पर प्रतिकूल प्रभाव न पड़े।
- संरक्षित क्षेत्र और अभयारण्यों की स्थापना:
- जैव विविधता के संरक्षण के लिए संरक्षित वन क्षेत्र, राष्ट्रीय उद्यान और अभयारण्य स्थापित करने पर जोर दिया गया।
राष्ट्रीय वन नीति के प्रभाव:
- वृक्षारोपण और हरित क्षेत्र:
- राष्ट्रीय वन नीति के माध्यम से वृक्षारोपण कार्यों को बढ़ावा दिया गया, जिससे हरित क्षेत्र में वृद्धि हुई और वनों की कटाई को नियंत्रित किया गया।
- स्थानीय समुदायों के साथ सहभागिता:
- नीति ने स्थानीय समुदायों के साथ वन संसाधनों के साझा उपयोग को बढ़ावा दिया, जिससे उनका आर्थिक कल्याण हुआ और साथ ही वे वन संरक्षण कार्यों में भी भागीदार बने।
- सतत वन प्रबंधन:
- सतत वन प्रबंधन के सिद्धांत के तहत वनों का दीर्घकालिक और स्थिर उपयोग सुनिश्चित किया गया।
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