भारत में वर्षा वितरण एक असमान प्रक्रिया है, जो देश के विभिन्न क्षेत्रों में भिन्न-भिन्न होती है। भारत में अधिकांश वर्षा दक्षिण-पश्चिम मानसून से होती है, जो जून से सितंबर तक सक्रिय रहता है। भारत में जलवायु मुख्य रूप से मानसूनी प्रभाव के कारण होती है, और यहाँ की लगभग 80% वार्षिक वर्षा इसी दौरान होती है। भारत का वर्षा वितरण भौगोलिक स्थिति, हवाओं की दिशा, पर्वत श्रृंखलाओं और समुद्र से दूरी पर निर्भर करता है।
भारत में वर्षा वितरण के क्षेत्रीय स्वरूप
1. पूर्वोत्तर भारत:
- पूर्वोत्तर भारत के मेघालय राज्य में स्थित मासिनराम और चेरापूंजी दुनिया के सबसे वर्षा-प्रधान क्षेत्रों में से एक हैं। यहाँ की औसत वार्षिक वर्षा 10,000 मिमी तक हो सकती है।
- यह क्षेत्र बंगाल की खाड़ी से आने वाली नमीयुक्त मानसूनी हवाओं के प्रभाव में आता है, जो खासी पहाड़ियों से टकराकर भारी वर्षा लाती हैं।
2. पश्चिमी घाट और तटीय क्षेत्र:
- पश्चिमी घाट पर अरब सागर से आने वाली मानसूनी हवाओं का प्रभाव अधिक रहता है। इससे यहाँ के पश्चिमी तट और केरल, कर्नाटक, गोवा, और महाराष्ट्र के तटीय क्षेत्रों में अत्यधिक वर्षा होती है।
- पश्चिमी घाट से टकराने के बाद हवाएँ यहाँ भारी वर्षा कराती हैं, लेकिन इसी के साथ घाट के पूर्वी भाग में कम वर्षा होती है (छाया प्रभाव)।
3. गंगा के मैदानी क्षेत्र:
- उत्तर प्रदेश, बिहार, और पश्चिम बंगाल में गंगा के मैदानी क्षेत्र में मानसून के समय अच्छी वर्षा होती है। इन क्षेत्रों में 1,000 से 2,000 मिमी तक वर्षा हो सकती है।
- यहाँ की वर्षा कृषि के लिए अनुकूल होती है और धान जैसी जल-प्रमुख फसलों की खेती के लिए उपयुक्त है।
4. राजस्थान और पश्चिमी भारत:
- राजस्थान, गुजरात, और लद्दाख जैसे क्षेत्रों में बहुत कम वर्षा होती है। ये क्षेत्र मरुस्थलीय या अर्ध-शुष्क जलवायु वाले होते हैं, जहाँ वर्षा का औसत 100 मिमी से भी कम हो सकता है।
- इस क्षेत्र में मानसून की हवाएँ कमजोर पड़ जाती हैं, जिससे कम वर्षा होती है और सूखे की स्थिति बनती है।
5. तमिलनाडु और दक्षिणी पूर्वी तट:
- तमिलनाडु में मुख्यत: उत्तर-पूर्व मानसून के दौरान (अक्टूबर से दिसंबर) वर्षा होती है, जो बंगाल की खाड़ी से आने वाली हवाओं के कारण होती है।
- यहाँ की वार्षिक वर्षा का बड़ा भाग उत्तर-पूर्व मानसून से प्राप्त होता है, जिससे राज्य की जल आवश्यकताओं की पूर्ति होती है।
वर्षा वितरण को प्रभावित करने वाले कारक
1.पर्वत श्रृंखलाएँ:
- हिमालय और पश्चिमी घाट जैसी पर्वतमालाएँ वर्षा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। हिमालय पर्वत दक्षिण एशिया को ठंडी हवाओं से बचाता है और मानसूनी हवाओं को उत्तरी भारत की ओर रोकता है, जिससे यहाँ अच्छी वर्षा होती है।
- पश्चिमी घाट में अरब सागर से आने वाली हवाएँ टकराती हैं और भारी वर्षा लाती हैं, लेकिन घाट के पूर्वी भाग में कम वर्षा होती है (छाया प्रभाव)।
2. समुद्र से दूरी:
- समुद्र से निकटता वर्षा में वृद्धि करती है। तटीय क्षेत्रों में अधिक वर्षा होती है, जबकि अंदरूनी क्षेत्रों में कम वर्षा होती है।
- मुंबई, गोवा, और केरल जैसे क्षेत्रों में समुद्र की निकटता के कारण वर्षा अधिक होती है।
3. मानसून की दिशा:
- दक्षिण-पश्चिम मानसून मुख्यतः अरब सागर और बंगाल की खाड़ी से आता है, जिससे पूर्व और पश्चिम तटों पर भारी वर्षा होती है। वहीं, उत्तर-पूर्व मानसून तमिलनाडु और दक्षिण-पूर्वी भारत में वर्षा लाता है।
4. प्राकृतिक जलवायु परिवर्तन:
- जलवायु परिवर्तन भी वर्षा वितरण को प्रभावित कर रहा है। अत्यधिक गर्मी के कारण कहीं अधिक वर्षा होती है, तो कहीं सूखे की स्थिति बनती है। इससे भारत के विभिन्न हिस्सों में वर्षा का असंतुलन बढ़ा है।
वर्षा वितरण के प्रभाव
1.कृषि पर प्रभाव:
- भारत में कृषि मानसूनी वर्षा पर निर्भर करती है। अच्छी वर्षा से फसल उत्पादन बढ़ता है, जबकि कम वर्षा फसलों के लिए हानिकारक होती है। धान, गन्ना और कपास जैसी फसलें अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में होती हैं, जबकि कम वर्षा वाले क्षेत्रों में बाजरा और ज्वार उगाए जाते हैं।
2. बाढ़ और सूखा:
- असमान वर्षा के कारण बाढ़ और सूखे की समस्याएँ उत्पन्न होती हैं। पूर्वी भारत और ब्रह्मपुत्र घाटी में अधिक वर्षा के कारण बाढ़ आती है, जबकि राजस्थान और गुजरात जैसे शुष्क क्षेत्रों में सूखा पड़ता है।
3. पानी की उपलब्धता:
- जहाँ अधिक वर्षा होती है, वहाँ जल स्तर अच्छा रहता है, जिससे पेयजल और सिंचाई के लिए पानी की उपलब्धता बनी रहती है। कम वर्षा वाले क्षेत्रों में पानी की कमी होती है, जिससे जल संकट उत्पन्न होता है।
4. वन्यजीव और जैव विविधता:
- वर्षा का स्तर वनस्पति और वन्यजीवों की विविधता पर भी प्रभाव डालता है। अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में घने जंगल और समृद्ध जैव विविधता होती है, जबकि कम वर्षा वाले क्षेत्रों में मरुस्थलीय वनस्पति और सीमित जैव विविधता होती है।
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