अपक्षय
अपक्षय वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा पृथ्वी की सतह पर मौजूद चट्टाने में टूट-फूट होती है । इस टूट-फूट से निर्मित भूपदार्थों का एक जगह से दूसरी जगह स्थानांतरण या परिवहन नहीं होता । अपक्षय के द्वारा चट्टानों का विघटन तथा वियोजन होता है! यह स्थैतिक क्रिया है । यह मुख्य रूप से तीन प्रकार का होता है ।
(1) भौतिक अपक्षय
(2) रासायनिक अपक्षय
(3) जैविक अपक्षय
(1) भौतिक अपक्षय – भौतिक अपक्षय अथवा यांत्रिक अपक्षय, वह अपक्षय है जिसमें चट्टानों के टूटने की प्रक्रिया में कोई रासायनिक बदलाव नहीं होता बल्कि ताप दाब इत्यादि कारकों द्वारा चट्टानों में टूट-फूट होती है।
(2) रासायनिक अपक्षय – वायुमंडल के निचले स्तर में ऑक्सीजन, कार्बन डाइऑक्साइड की अधिकता होती है तथा नमी या जल के संयोग होते हैं जिससे चट्टानों में रासायनिक परिवर्तन होने लगते हैं शैल खनिज में पुनव्यवस्था के कारण वियोजन रासायनिक अपक्षय कहलाता है ।
(3) जैविक अपक्षय- जीवो की वृद्धि या संचलन के कारण होने वाले अपक्षय को जैविक अपक्षय कहते हैं! केचुआ,दीमकों, चूहों कृतको, इत्यादि जैसे जीवों के द्वारा बिल खोदने एवं वेजिंग के कारण जैविक अपक्षय होता है! मानवीय क्रियाकलापों द्वारा भी जैविक अपक्षय होता है ।
अपरदन
अपक्षय द्वारा चट्टानें छोटे-छोटे टुकड़ों में खण्डित होकर गतिवाही शक्तियों द्वारा एक स्थान से दूसरे स्थान पर स्थानान्तरित हो जाती हैं। यह प्रक्रिया अपरदन कहलाती है। अपरदन के प्रक्रमों में वायु, जल तथा हिमनद और सागरीय लहरें प्रमुख हैं।
निक्षेपण
जब नदी पहाड़ों से निकलकर मैदानी भाग में आती है तो इसकी ढाल मंद हो जाती है। इससे नदी की शक्ति कम हो जाती है। नदी की शक्ति कम होने से परिवहन में बाधा उत्पन्न होती है। परिणामस्वरूप, अवसाद और मलबा जमा होने लगते हैं। इस क्रिया को नदी की निक्षेपण प्रक्रिया कहते हैं। भूमिगत जल में निक्षेपण प्रक्रिया से स्टैलैक्टाइट और स्टैलैग्माइट स्थलाकृतियों का निर्माण होता है। हिमानी की निक्षेपण प्रक्रिया से हिमोढ़ का निर्माण होता है। पवन की निक्षेपण प्रक्रिया से बनने वाली स्थलाकृतियों में बालू के टीले, बरखान, लोयड्स आदि प्रमुख हैं। समुद्री तरंगों का निक्षेपण प्रक्रिया से पुलिन, बालू रोधिका, स्पिट, लैगून आदि स्थलाकृतियों का निर्माण होता है।
प्रवाहित जल
प्रवाहित जल सबसे महत्वपूर्ण भू-आकृतिक कारक है जो धरातल के निम्नीकरण के लिए उत्तरदायी है।
स्थलगत प्रवाह परत अपरदन का कारण है।
युवावस्था, प्रौढ़ावस्था व वृद्धावस्था अपरदन चक्र की प्रमुख अवस्थाएँ होती हैं।
युवावस्था में जलप्रपात, सोपानी भाग, मध्यावस्था में पार्श्व अपरदन व अन्ततः समप्रायः मैदान का निर्माण होता है।
प्रवाहित जल के अपरदन से घाटियाँ, गार्ज, कैनियन, जलगर्तिका, अवनमन कुंड, विसर्प व नदी वेदिकाएँ बनती हैं।
नदियों के निक्षेपित स्थलरूपों में जलोढ़ पंख, डेल्टा, बाढ़-मैदान, प्राकृतिक तटबन्ध तथा विसी रोधिका, नदी विसर्प तथा छाड़न झीलों आदि का निर्माण होता है।
जल प्रपात
नदी का जल जब किसी ऐसी कठोर चट्टान से गुजरता है , जिसे वह काट नहीं पाती और आगे मुलायम चट्टान आ जाती है जिसे वह आसानी से काट लेती है तो धीरे – धीरे नदी के तल मे अन्तर आ जाता है और उसका जल ऊपर से नीचे प्रपात के रूप में गिरने लगता है ।
जल प्रपात
नदी विसर्प
बाढ़ मैदानों में नदियाँ वेग की कमी के कारण सीधे मार्ग से प्रवाहित न होकर टेढ़े-मेढ़े मार्गों से होकर बहती हैं। इसे ही नदी विसर्प कहते हैं। ये विसर्प ‘S’ आकार के होते हैं।
डेल्टा
नदियाँ समुद्र मे गिरते समय अधिक अवसाद एवं मंद ढाल के कारण बहुत ही मंद गति से बहती हैं एवं अवसाद को त्रिभुजाकार आकृति में जमा कर देती हैं जिसे डेल्टा कहते हैं ।
भूमिगत जल
जल धरातल के नीचे चट्टानों की संधियों , छिद्रों , से होकर क्षैतिज अवस्था में बहता जल का क्षैतिज और उर्वार्धर प्रवाह ही चट्टानों के अपरदन का कारण है | चूना युक्त चट्टानें आद्र क्षेत्रों में जहाँ वर्षा अधिक होती है रासायनिक क्रिया द्वारा कई स्थलरूपों का निर्माण करती है ।
छत्रक शिला
तेज हवायें किसी शैल को अपवाहित कणों द्वारा काट देती हैं तो ऊपर की शैल छतरी जैसी बन जाती है ।
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