महावीर (वर्धमान)
भगवान महावीर जैन धर्म के 24वें एवं अंतिम तीर्थंकर थे। उनका जन्म 599 ईसा पूर्व बिहार में वैशाली के कुण्डलपुर में लिच्छिवी वंश में हुआ था।
वर्धमान बचपन से ही लाडले थे और एक उचित राजकुमार की तरह रहते थे। उन्होंने अपने बचपन में कई महान काम किए जैसे कि अपने दोस्त को जहरीले सांप से बचाना, राक्षस से लड़ना आदि, जिससे साबित हुआ कि वह कोई साधारण बच्चा नहीं था। इसने उन्हें “महावीर” नाम दिया। वह सभी सांसारिक सुखों और विलासिता के साथ पैदा हुआ थे लेकिन किसी तरह वह कभी भी उनसे आकर्षित नहीं हुआ। जब वह 20 वर्ष की आयु में था, उसके माता-पिता की मृत्यु हो गई। तभी उसने साधु बनने का फैसला किया। उन्होंने कपड़ों सहित अपनी सभी सांसारिक संपत्ति को छोड़ दिया और एक साधु बनने के लिए एकांत में चले गए।
12 साल के सख्त ध्यान और तपस्वी जीवनशैली के बाद, उन्होंने अंत में आत्मज्ञान और आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त किया और भगवान महावीर के नाम से जाना जाने लगा।उन्होंने भोजन छोड़ दिया और अपनी इच्छाओं को नियंत्रित करना सीख लिया। आत्मज्ञान प्राप्त करने के बाद, उन्होंने जो उन्होंने सीखा था, उसका प्रचार किया। उन्होंने अगले तीस साल भारत में नंगे पांव घूमते हुए लोगों के बीच शाश्वत सत्य का प्रचार किया । उन्होंने अमीर और गरीब, राजाओं और आम लोगों, पुरुषों और महिलाओं, राजकुमारों और पुजारियों, छुआछूत और अछूतों के लोगों को आकर्षित किया। कई लोग उनसे प्रेरित हुए और जैन धर्म में परिवर्तित हो गए।उन्होंने अपने अनुयायियों को चार क्रम में संगठित किया ।
महावीर जैन
जीवन के विकासके लिए उन्होंने मन, वचन, और कर्म से शुद्ध रहकर तीन बातो को माने पर विशेष बल दिया।
1. सही बातों मे विश्वास
2. सही बातों को ठीक से समझना
3. उचित कर्म
जैन धर्म मे इन्हे त्रिरत्न (तीन रतन) कहा जाता है।
महावीर से अचे व्यवहार व आचरण के लिए पांच महाव्रतो का पालन किया –
1. जीवो को न मारना
2. सच बोलना
3. चोरी न करना
4. अनुचिन धन न जुटाना
5. इन्द्रियों को वश मे रखना
श्वेतांबर
इन्हे 2 सम्प्रदायों मे बाटा गया – (सफ़ेद कपड़े पहनने वाले ) और दिगंबर (निर्वस्त्र रहने वाले)।
गौतम बुद्ध
गौतम बुद्ध का जन्म ईसा से 563 साल पहले जब कपिलवस्तु की महारानी महामाया देवी अपने नैहर देवदह जा रही थीं, तो रास्ते में लुम्बिनी वन में हुआ।
यह स्थान नेपाल के तराई क्षेत्र में कपिलवस्तु और देवदह के बीच नौतनवा स्टेशन से 8 मील दूर पश्चिम में रुक्मिनदेई नामक स्थान है, वहां आता है। जहां एक लुम्बिनी नाम का वन था।
उनका नाम सिद्धार्थ रखा गया। उनके पिता का नाम शुद्धोदन था। जन्म के सात दिन बाद ही मां का देहांत हो गया। सिद्धार्थ की मौसी गौतमी ने उनका लालन-पालन किया।
सिद्धार्थ ने गुरु विश्वामित्र के पास वेद और उपनिषद् तो पढ़े ही, राजकाज और युद्ध-विद्या की भी शिक्षा ली। कुश्ती, घुड़दौड़, तीर-कमान, रथ हांकने में कोई उसकी बराबरी नहीं कर पाता।
उन्होंने मध्यम मार्ग (बीच का सस्ता) अपनाने की शिक्षा दी । जिसका अर्थ होता है ‘ न तो विलासिता ‘ और ‘ न तो धिक् कठोर ताप।’। गौतम बुद्ध ने चार आर्य सत्य को मन है –
1. दुःख है
2. दुःख का कारण है
3. दुःख दूर करने का उपाय भी है
4. दुःखों को दूर करने का उपाय अष्टांगिक मार्ग है
अष्टांगिक मार्ग का सरल नियम-
1. जीवन को सुचारु रूप से चलने के लिए सही सोच होना
2. सही बात और कार्य करना
3. सत्य बोलना
4. अच्छा कार्य करना
5. अच्छे कार्यो द्वारा जीविका अर्जित करना
6. मानसिक और व्यवहार पर हमेशा नज़र रखना
7. ज्ञान प्राप्ति के लिए धयान केंद्रित करना
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