पर्यावरण प्रदूषण दो शब्दों, पर्यावरण और प्रदूषण से मिलकर बना है। जैसा की हम पिछले लेख मे यह जान चुके है की पर्यावरण का तात्पर्य हमारे चारों ओर आस-पास के वातावरण एवं परिवेश से होता है, जिसमे हम, आप और अन्य जीवधारी रहते है।
पर्यावरण मे मिलने वाले हानिकारक पदार्थ, जो पर्यावरण को प्रदूषित बनाते है प्रदूषक कहलाते है तथा इस समस्या को प्रदूषण कहते है। प्रदूषण के निम्न प्रकार होते है–
1. वायू प्रदूषण
2. जल प्रदूषण
3. मृदा/भूमि प्रदूषण
4. ध्वनि प्रदूषण
विभिन्न प्रकार के प्रदूषणों व उनके परिणामों को जाने-
जल प्रदूषण
जल मई किसी प्रकार के अवांछित पदार्थो की उपस्थिति, जिसके कारण जल की गुणवत्ता मे कमी आ जाती है, जल प्रदुषण कहलाता है। प्रदूषित जल अनेक बिमारियों का कारण होता है।
जल प्रदूषण के कारण
उद्योगों द्वारा जल प्रदूषण: उद्योग जल प्रदूषण का एक बड़ा स्रोत है, यह प्रदूषक पैदा करता है जो लोगों और पर्यावरण के लिए बेहद हानिकारक हैं। कारखानों और उद्योगों द्वारा जारी ये रासायनिक और अन्य अपशिष्ट जलीय जानवरों और पौधों के लिए हानिकारक हैं।
मानव की दैनिक क्रियाएं – नदी, तालाबों, आदि मे कपड़े धोने, पशुओं को नहलाने, सीवेज लाइन का गन्दा पानी इसमें परिवहन करने के कारण जल प्रदूषित होती है।
जल जनित बीमारियाँ
जल जनित रोगों से बचाव
1. भोजन और पीने के पानी को संभालने से पहले हाथ अच्छी तरह धो लें।
2. सीवेज पाइप के साथ पानी के पाइप के संदूषण से बचें। लीक हुए पाइपों को एक बार में ठीक करें।
3. बाहरी भोजन से बचें जब आपको इसकी गुणवत्ता पर संदेह हो।
4. कच्चे भस्म करने के लिए सभी खाद्य पदार्थों को बहते पानी के नीचे अच्छी तरह धो लें।
5. लक्षण बिगड़ने और व्यक्ति निर्जलित होने पर चिकित्सक से शीघ्र उपचार प्राप्त करें।
6. विभिन्न संक्रमणों के लिए अलग-अलग उपचारों की आवश्यकता होती है, इसलिए स्व-औषधि का प्रयास न करें।
7. अपने आसपास साफ-सफाई रखें। गंदे, भीड़भाड़ वाले इलाकों में रहने से बचें।
8. पीने के पानी को ढके हुए बर्तनों या साफ बोतलों में रखें।
जल प्रदूषण का नियंत्रण
1. प्रत्येक घरों में सेप्टिक टैंक होना चाहिए।
2. जल स्त्रोतों में जानवरों की सफाई न करना।
3. व्यर्थ पदार्थों को नदी , तालाब व पोखरों में न बहाना।
4. कीटनाशी व उर्वरकों का अधिकता में प्रयोग न करना।
5. नुकसानदायी कीटनाशकों पर प्रतिबन्ध लगाना।
6. पानी शुद्धिकरण इकाई के उद्योगों की स्थापना करना।
वायु प्रदूषण
वायु प्रदूषण तब होता है जब गैसें, धूल, गंदगी, पराग, कालिख, वायरस, आदि हवा को दूषित करते हैं जिससे यह अशुद्ध, अस्वास्थ्यकर और विषाक्त होता है। हवा में मौजूद वायु प्रदूषण की मात्रा मनुष्यों, जानवरों, पौधों और पूरे पारिस्थितिकी तंत्र पर इसके प्रभाव को निर्धारित करती है। हवा में प्रदूषण की मात्रा मनुष्यों, जानवरों और पौधों को नुकसान के स्तर को प्रभावित करती है।
वायु प्रदूषण के कारण
1. बढ़ती आबादी
2. बढ़ते उद्योग
3. संचार के साधन
4. वनों की अंधाधुंध कटाई
5. परमाणु परिक्षण
वायु प्रदूषण का प्रभाव
1. कार्बन मोनोक्साइड मनुष्य के रक्त के हीमोग्लोबीन अणुओं से ऑक्सीजन की तुलना में 200 गुणा अधिक तेजी से संयुक्त हो जाती है एवं जहरीला पदार्थ कार्बोेक्सी हीमोग्लोबिन बनाती है। जिस कारण ऑक्सीजन की वायु में पर्याप्त मात्रा रहने पर भी श्वास अवरोध, दम घुटन होने लगता है।
2. ओजोन की अल्पता होने पर गोरी चमड़ी के लोगों में चर्म कैंसर होने की आशंका व्यक्त की गयी है।
3. सल्फर-डाइ-ऑक्साइड से मिश्रित नगरीय धूम कोहरे के कारण मनुष्य के शरीर में श्वसन प्रणाली अवरूद्ध हो जाती है, जिस कारण लोगों की मृत्यु हो जाती है।
4. सल्फर-डाइ-ऑक्साइड के प्रदूषण द्वारा आँख, गले एवं फेफड़े का रोग भी होता है।
5. अम्ल वर्षा के कारण धरातलीय सतह पर जलभण्डारों का जल तथा भूमिगत जल प्रदूषित हो जाता है (जल में अम्लता बढ़ जाती है), जो लोग इस तरह के प्रदूषित जल का सेवन करते हैं, उनका स्वास्थ्य दुष्प्रभावित होता है।
वायु प्रदूषण नियंत्रण
1. स्वच्छ ईंधनों, जैसे सी.एन.जी. का उपयोग करें।
2. पर्यावरण से सम्बन्धित जागरूकता कार्यक्रम सृजित करें ताकि प्रत्येक अपने उत्तरदायित्व को समझे।
3. ऊर्जा के स्वच्छ संसाधनों का उपयोग करें जैसे सौर ऊर्जा, वायु ऊर्जा और जल ऊर्जा।
4. कम हानिकारक उत्पादों की खोज की जानी चाहिए, यथा-सौर चलित मोटर कार।
5. ऐसे उद्योग, जो भारी प्रदूषण फैलाते हों, उन्हें रिहायशी स्थानों से काफी दूर रखना चाहिए।अधिक पौधे लगाएँ।
ध्वनि प्रदूषण
ध्वनि प्रदूषण किसी भी प्रकार के अनुपयोगी ध्वनियों को कहते हैं, जिससे मानव और जीव-जन्तुओं को परेशानी होती है। इसमें यातायात के दौरान उत्पन्न होने वाला शोर मुख्य कारण है। जनसंख्या और विकास के साथ ही यातायात और वाहनों की संख्या में भी वृद्धि होती जिसके कारण यातायात के दौरान होने वाला ध्वनि प्रदूषण भी बढ़ने लगता है।
ध्वनि प्रदूषण के कारण
औद्योगिक एवं निर्माण गतिविधियाँ, मशीनरी, कारखानों के उपकरण, जनरेटर, आरी और हवाई तथा बिजली के अभ्यासों से भी ध्वनि प्रदूषण होता है। ध्वनि प्रदूषण के कारणों या स्रोतों को दो भागों में विभाजित किया जाता है:
1. प्राकृतिक स्रोत – इसके अंतर्गत बादलों की गड़गड़ाहट, तूफानी हवाएँ, भूकम्प, ऊँचे पहाड़ से गिरते पानी की आवाज, बिजली की कड़क, ज्वालामुखी के फटने से उत्पन्न भीषण शोर, कोलाहल, वन्य जीवों की आवजें, चिड़ियों की चहचहाट की ध्वनि आती है।
2. अप्राकृतिक स्रोत – यह मनुष्य के द्वारा निर्मित शोर प्रदूषण होता है इसके अन्तर्गत उद्योग धन्धे, मशीनें, स्थल, वायु, परिवहन के साधन-मोटर, ट्रक, हवाई जहाज, स्कूटर्स, बसें, एम्बुलेंस आदि।
ध्वनि प्रदूषण के प्रभाव
1. ध्वनि प्रदूषक मनुष्य के स्वास्थ्य, आराम एवं कुशलता को प्रभावित करता है। इसके कारण रक्त धमनियों के संकुचन से शरीर 2. पीला पड़ जाता है, रक्त प्रवाह में अत्यधिक मात्रा में एड्रीशन हार्मोन्स का होता है।
3. ध्वनि पेशियों के संकुचन का कारण होता है जिससे तन्त्रिकीय क्षति, विसंगति, तनाव एवं पागलपन विकसित होता है।
4. शोर के कारण हृदय, मस्तिष्क, किडनी एवं यकृत को क्षति होती है और भावनात्मक विसंगतियाँ उत्पन्न होती हैं।
5. शोर का घातक प्रभाव वन्यजीवों एवं निर्जीव पदार्थों पर भी होता है।
ध्वनि प्रदूषण नियंत्रण
1. कानून की सहायता से शोर करने वाले वाहन, मोटर, ट्रक, आदि पर रोक लगाकर शोर कम किया जा सकता है।
2. वायुयान, ट्रक, मोटरसायकिल, स्कूटर, औद्योगिक मशीनों एवं इंजनों को शोर नियंत्रण कवच से ढँकना चाहिए जिससे इन उपकरणों से कम से कम शोर उत्पन्न हो सके।
3. मकानों, भवनों में कमरों के दरवाजों एवं खिड़कियों को उपयुक्त रूपरेखा या डिजाइन का बनाकर बहुत कुछ शोर को कम किया जा सकता है।
4. घरेलू शोर को कम करने के लिए टी.वी. रेडियो, ट्रांजिस्टर, टेपरिकार्डर, ग्रामोफोन्स आदि को धीमी गति से चलाना चाहिए।
5. धार्मिक, सामाजिक, चुनाव, शादी कार्यक्रमों, धार्मिक उत्सवों, मेलों आदि में ध्वनि विस्तारक यंत्रों का उपयोग आवश्यक होने पर करना चाहिए और वह भी कम ध्वनि के साथ।
मृदा प्रदूषण
भूमि समाज के लिए प्रकृति का अनुपम निःशुल्क उपहार है। इसमें सृजन एवं पोषण का सामर्थ्य है इस कारण यह समस्त जीवधारियों के अस्तित्व का आधार है। इसी आधारिक उपादेयता के कारण समाज में भूमि को माता सर्वोच्च स्थान प्राप्त है। इससे ही अनाज वनोपज, औषधि, विविध खनिज, जल आदि उपयोगी पदार्थ प्राप्त होते हैं। अतएव इसे रत्न प्रसवा’ कहा जाता है। जनसंख्या वृद्धि से भूमि उपयोग में विविधता एवं सघनता आई है। फलस्वरूप भूमि के भौतिक, रासायनिक या जैविक गुणों में कोई भी अवांछित परिवर्तन, जिसका कुप्रभाव मानव तथा अन्य जीवों पर पड़े या जिससे भूमि की प्राकृतिक गुणवत्ता तथा उपयोगिता नष्ट होती है।
मृदा प्रदूषण के कारण
1. कृषि में उर्वरकों, रसायनों तथा कीटनाशकों का अधिक प्रयोग ।
2. औद्योगिक इकाइयों, खानों तथा खादानों द्वारा निकले ठोस कचरे का विसर्जन भवनों, सड़कों आदि के निर्माण में ठोस कचरे का विसर्जन ।
3. कागज तथा चीनी मिलों से निकलने वाले पदार्थों का निपटान, जो मिट्टी द्वारा अवशोषित नहीं हो पाते।
4. प्लास्टिक की थैलियों का अधिक उपयोग, जो जमीन में दबकर नहीं गलती ।
5. घरों, होटलों और औद्योगिक इकाइयों द्वारा निकलने वाले अवशिष्ट पदार्थों का निपटान, जिसमें प्लास्टिक, कपड़े, लकड़ी, धातु कांच, सेरामिक, सीमेंट आदि सम्मिलित हैं।
मृदा प्रदूषण के प्रभाव
1. मिटटी मे रहने वाले जीव जंतु नष्ट हो जाते है।
2. मिटटी का उपजाऊपन काम हो जाता है।
3. पेड़ पौधे एवं फसलों की वृद्धि पर दुष्प्रभाव पड़ता है।
4. प्रदूषित मृदा पर पैदा होने वाली फसलों के सेवन से मानव स्वस्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ता है।
मृदा प्रदूषण के नियंत्रण
1. वृक्षों के कटान पर प्रतिबंध लगाया जाए एवं वृक्षारोपण अधिक से अधिक किया जाए।
2. भूमि में रसायनिक उर्वरकों का आवश्यकतानुसार उचित मात्रा में ही प्रयोग किया जाए।
3. ठोस अपशिष्टों के निपटान (disposal) के लिए उचित विधियों का प्रयोग करना चाहिए।
4. परमाणु विस्फोटों पर प्रतिबंध लगाना चाहिए।
5. पीड़ानाशकों का आवश्यकता के अनुसार ही कम मात्रा में प्रयोग करना चाहिए।
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