Summary For All Chapters – हिंदी Class 10
श्रम साधना
Summary in Hindi
“श्रम साधना” निबंध में लेखक श्रीकृष्णदास जाजू ने श्रम की महत्ता, संपत्ति के स्वामित्व, आर्थिक और सामाजिक समानता पर प्रकाश डाला है। लेखक बताते हैं कि गुलामी और राजशाही जैसी प्रथाएँ सदियों तक चलीं, लेकिन जब लोगों ने अपने अधिकारों को समझा और अन्याय के खिलाफ आवाज उठाई, तो वे समाप्त हो गईं। इसी तरह, संपत्ति के स्वामित्व को लेकर भी लोगों को जागरूक होना होगा।
लेखक बताते हैं कि संपत्ति केवल पैसा, सोना-चाँदी नहीं होती, बल्कि वे वस्तुएँ होती हैं जो मनुष्य के उपयोग में आती हैं, जैसे अन्न, वस्त्र, मकान आदि। संपत्ति का निर्माण केवल प्राकृतिक संसाधनों और श्रम के माध्यम से ही संभव है। लेकिन दुर्भाग्य से, जो लोग श्रम करके संपत्ति का निर्माण करते हैं, वे गरीब और शोषित रहते हैं, जबकि व्यापारी और उद्योगपति उस संपत्ति का लाभ उठाकर अमीर बन जाते हैं।
लेखक ने श्रमजीवियों और बुद्धिजीवियों के कार्यों की तुलना करते हुए बताया कि बुद्धिजीवी वर्ग (डॉक्टर, वकील, व्यापारी) समाज में अधिक धन कमाते हैं, जबकि श्रमजीवी (किसान, मजदूर, बढ़ई) कठिन परिश्रम करने के बावजूद आर्थिक रूप से पिछड़े रहते हैं। समाज में व्याप्त इस आर्थिक असमानता को समाप्त करने के लिए श्रम की प्रतिष्ठा को बढ़ाना आवश्यक है।
महात्मा गांधी का मानना था कि प्रत्येक व्यक्ति को बौद्धिक श्रम के साथ-साथ शारीरिक श्रम भी करना चाहिए। उनका सुझाव था कि हर व्यक्ति को दिन में चार घंटे शारीरिक श्रम और चार घंटे बौद्धिक श्रम करना चाहिए, जिससे समाज में श्रमिकों का सम्मान बढ़ेगा और आर्थिक विषमता दूर होगी।
लेखक यह भी बताते हैं कि समाज में कुछ लोग अमीरों द्वारा दिए गए दान को आवश्यक मानते हैं, क्योंकि इससे अस्पताल, स्कूल आदि बनाए जाते हैं। लेकिन यदि संपत्ति का उचित वितरण हो, तो लोगों को दान लेने की आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी। आर्थिक समानता तभी संभव है जब संपत्ति कुछ लोगों तक सीमित न रहकर सभी को बराबर मिले।
अंत में, लेखक इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि आर्थिक असमानता का समाधान हिंसा से नहीं बल्कि अहिंसा के मार्ग से होना चाहिए। जैसे भारत ने राजनीतिक स्वतंत्रता अहिंसा के माध्यम से प्राप्त की, वैसे ही आर्थिक समानता भी अहिंसा और न्यायपूर्ण श्रम के वितरण से लाई जा सकती है।
Summary in Marathi
“श्रम साधना” या निबंधात लेखक श्रीकृष्णदास जाजू यांनी श्रमाचे महत्त्व, संपत्तीचे स्वामित्व, आर्थिक आणि सामाजिक समानता यावर प्रकाश टाकला आहे. लेखक सांगतात की, गुलामी आणि राजशाही सारख्या प्रथा शतकानुशतके चालत आल्या, परंतु जेव्हा लोकांना त्यांच्या हक्कांची जाणीव झाली आणि त्यांनी अन्यायाविरुद्ध लढा दिला, तेव्हा या प्रथा नष्ट झाल्या. त्याचप्रमाणे, संपत्तीचे वितरण योग्य प्रकारे होणे गरजेचे आहे.
लेखक स्पष्ट करतात की संपत्ती म्हणजे केवळ पैसा, सोने-चांदी नसून त्या गोष्टी आहेत ज्या माणसाच्या दैनंदिन उपयोगात येतात, जसे अन्न, वस्त्र, घर इ. कोणतीही संपत्ती ही निसर्गसंपत्ती आणि मानवी श्रम यांच्या मदतीनेच निर्माण होते. पण दुर्दैवाने, जे लोक कष्ट करून संपत्ती निर्माण करतात, ते गरीबच राहतात, तर व्यापारी आणि उद्योगपती त्याच संपत्तीवर श्रीमंत होतात.
लेखकाने श्रमजीवी आणि बुद्धिजीवी लोकांच्या कार्यांची तुलना केली आहे. बुद्धिजीवी (डॉक्टर, वकील, व्यापारी) जास्त पैसे कमवतात, तर श्रमजीवी (शेतकरी, कामगार, सुतार) दिवसरात्र कष्ट करूनही गरीब राहतात. समाजातील ही विषमता दूर करण्यासाठी श्रमाला प्रतिष्ठा मिळायला हवी.
महात्मा गांधींचे मत होते की, प्रत्येक व्यक्तीने केवळ बौद्धिक श्रमच नव्हे, तर शारीरिक श्रम देखील करावा. गांधीजींनी सुचवले की, प्रत्येकाने दिवसातून चार तास शारीरिक श्रम आणि चार तास बौद्धिक श्रम करावा, जेणेकरून कामगारांचा सन्मान वाढेल आणि आर्थिक विषमता दूर होईल.
लेखक असेही सांगतात की, अनेक लोक श्रीमंत लोकांनी दिलेल्या दानाला महत्त्व देतात, कारण त्यातून शाळा, रुग्णालये उभी राहतात. परंतु जर संपत्तीची योग्य विभागणी झाली, तर कोणालाही दान घेण्याची गरज पडणार नाही. आर्थिक समानता तेव्हाच शक्य आहे, जेव्हा संपत्ती मोजक्या लोकांकडे न राहता सर्वांना समान मिळेल.
शेवटी, लेखक असा निष्कर्ष काढतात की, आर्थिक असमानतेचे समाधान हिंसेने नव्हे, तर अहिंसेच्या मार्गानेच शक्य आहे. जसे भारताने राजकीय स्वातंत्र्य अहिंसेच्या माध्यमातून मिळवले, तसेच आर्थिक समता हीही अहिंसा आणि न्यायसंगत श्रम वितरणाद्वारे प्राप्त करता येईल.
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