पृथ्वी (नरेश सक्सेना)
पृथ्वी कवि परिचय – नरेश सक्सेना (1939)
नरेश सक्सेना का जन्म 1939 ई. में ग्वालियर मध्य प्रदेश में हुआ है।
वे बीसवीं शदी के सातवें दशक में एक अच्छे और विश्वसनीय कवि के रूप में जाने जाते हैं।
जिस कवि ने आजादी के 20 वर्षों के बाद का भारत देखा हो, पहली बार उस कवि की कविताओं में कल्पना का अंश, मनोरंजन का अंश आ ही नहीं सकता।
पाकिस्तान का दो-दो बार हमला करना, चीन का भारत पर हमला करना, भुखमरी, अकाल सबको देखने, भोजने वाले नरेश मेहता को मानवीय मूल्यों के प्रति आस्था उत्पन्न होती है और मानवीय मूल्यों, आदर्शों का उत्स नारी है। नारी का हृदय है तो वे नाम की वर्तमान विपन्न विषण्ण स्थिति को देखकर क्षुब्ध हो उठते हैं।
आरम्भिक दौर में नरेश सक्सेना काव्यान्दोलन से जुड़े। किन्तु समय की कटु कठोर सच्चाइयों ने इन्हें बाध्य किया और ये अपेक्षाकृत अधिक बौद्धिकता, वैचारिकता और संवेदनशीलता के साथ कविता रचने लगे।
समकालीन घटनाओं पर इनकी लेखनी खूब चली। कोई घटना, अनछुई नहीं रह सकी। सक्सेना जी ने “मैं” को अपने काव्य का उपजीव्य नहीं बनाया। ये पूर्णतः निर्वैयक्तिक और वस्तुपरक होकर, तटस्थ होकर लिखते हैं। उन्हें कवि कर्म और उत्पाद के बीच के सम्बन्ध पर संदेह है।
“जैसे चिड़ियों की उड़ान में शामिल होते हैं
पेड़” क्या कविताएँ होंगी मुसीबत में हमारे साथ?
कवि को लगता है कि कविताओं से जीवन को नहीं चलाया जा सकता। कविता के सहारे संघर्ष नहीं किया जा सकता। नरेश सक्सेना को अपनी रचनाओं से राग, मोह नहीं है।
कवि की प्रतीक्षा आगे के कई विषय करते मिलते हैं। आज का जीवन कितना संघर्षपूर्ण प्रतियोगितात्मक है, इसे स्वयं नरेश सक्सेना ने भोगा। जल निगम के उपप्रबंधक पत्रिकाओं के सम्पादक और टेलीविजन रंगमंच के लेखक के रूप में चुनौतियों से दो-चार होना आज भी जारी है। फिर भी उनका हृदय कटु भावनाओं से भरा नहीं है, बल्कि उनमें मानवीय संवेदनाएँ भरी पड़ी हैं।
वस्तुतः ये दृष्टिकोण के विस्तार और संवेदनाओं की प्रगाढ़ता के भीतर ही युगधर्म के प्रचलित सरोकारों यथा, राजनीति, सामाजिकता एवं प्रतिबद्धताओं और उनके वास्तविक अर्थपूर्ण रुख, रुझानों को अपना बनाते चलते हैं। अभियंता का जीवन जीने वाला जब कवि कर्म को अपनाता है तो उसकी रचना दृष्टि ज्यादा तथ्यपरक होती है। वस्तु को वह वस्तुपरक ढंग से रखता है। भाषा नपी-तुली होती है।
कविता में ज्ञान-विज्ञान के तथ्यों का – समायोजन एक कठोर संयमित साधना का ही प्रतिफलन है। नरेश मेहता का काव्य संसार ठोस साक्ष्यों पर आधारित है। किन्तु प्रभाव में वही मसृणता . प्राप्त होता है। मेहता भी बिम्बों के सृजनहार है।
मुक्त छंद तो आजादी के बाद का कविता धर्म ही बन गया। किन्तु मुक्त छंद में भी बातें प्रभावशाली बन जाती हैं, मारक क्षमता प्राप्त कर लेती हैं। मेहता जी का मुक्त छंद भी हमें नई वैचारिक भूमि उपलब्ध कराता है। वास्तव में समसामयिक जीवन की समस्याओं और संघर्षों से नरेश का गहरा लगाव स्पष्ट होता है। ऐसा करते हुए उनका दृष्टिकोण संवेदना मानवीय पक्ष का उजागर करता है।
पृथ्वी कविता का सारांश
नरेश सक्सेना रचित ‘पृथ्वी’ शीर्षक कविता समसामयिक जीवन की समस्याओं और संघर्षों से हमारा अद्भुत तरीके से साक्षात्कार करती है।
प्रस्तुत कविता में कवि पृथ्वी को सम्बोधित करते हुए उसकी भौगोलिक बनावट, उसकी नियति, उसके आक्रोश आदि का लेखा-जोखा तो लेता ही है। कवि पृथ्वी के बहाने नारी, स्त्री जीवन की उच्चता और विडंबना को भी प्रस्तुत करता है।
भूगोल और विज्ञान के सत्य के साथ कवि पृथ्वी से कहता है कि तुम घुमती हो और लगातार। बिना रुके अपने केन्द्र पर तो तुम घूर्णन करती ही हो एक अन्य बाह्य केन्द्र (सूर्य) के परितः पर चक्रण करती है। एक ही साथ दो अलग प्रकृति के घुमाव से क्या तुम्हें चक्कर नहीं आते? तुम्हारी आँखों के आगे अंधेरा नहीं छाता? तुम हमेशा दो विपरीत प्रकृतियों को साथ लिए चलती है। तुम्हारे आधे भाग में सूर्य के कारण उजाला और आधे भाग में तुम्हारी बनावट के कारण अँधेरा होता है। तुम रात-दिन एक करते हुए दिन को रात और रात को दिन में बदलने के लिए गतिमान रहती हो।
अनथक परिश्रम रत रहती हो। तुम्हें हमने कभी चक्कर खाकर गिरते नहीं देखा। हाँ कभी-कभी तुम कॉपती हो जब तुम्हारी आन्तरिक बनावट में कोई विक्षोभ उत्पन्न होता है। तब लगता है कि सम्पूर्ण अस्ति को नास्ति में बदलकर ही दम लोगी। तुमने अपनी गृहस्थी को सजाने-संवारने के लिए पेड़, पर्वत, नदी, गाँव, टीले की व्यवस्था की है लगता है भूकंप की स्थिति में तु अति क्रोध में आकर इन्हें नष्ट करने पर उद्धत हो प्रतिबद्ध हो गई हो।
तुम्हारा सारा स्वभाव एक स्त्री से मिलता है। क्या तुम भी स्त्री हो। स्त्री के भी कम-से-कम दो व्यक्तित्व होते हैं। वह भी पूरे जीवन नर्तन घूर्णन चक्रण में व्यस्त रहती है वह भी विन्यास करती है और आक्रोश की पराकाष्ठा पर वह भी अपने ही संसार को नष्ट करने पर उतारू हो जाती है।
पृथ्वी तुम्हारी सतह पर जीवन के लिए अपरिहार्य तत्त्व जल प्रचुरता में उपलब्ध है। यह जल तत्व तुम्हारी सतह के नीचे भी है जो शीतलता संचरण संतुलन में लगा है। किन्तु तुम्हारे भी केन्द्र में एक स्त्री की तरह केवल आग दहकता है। क्या तुम्हें भी सदियों से उपेक्षा, तिरस्कार का सामना करना पड़ रहा है जो आक्रोश का पूँजीभूत रूप अग्नि बन गया है। पृथ्वी तुम एक स्त्री की तरह तपस्या साधना करने वाली हो।
एक स्त्री अपने कठोर अनुशासन और मसृण ममत्व के बल पर अपने बच्चे को सर्वगुण सम्पन्न बना देती है। वैसे ही तुम भी अपने क्रोड के चरम ताप, दाब और जल तत्त्व के आर्द्रगुण के सहयोग से वह भी बिना किसी विज्ञापन के कष्टकर जटिल प्रक्रियाओं से गुजर कर कोयले को हीरा बना देती हो। तुम्हारे गर्भ में हृदय में हीरा ही नहीं अन्य अनेक असंख्य रत्न, धातु संरक्षित हैं। उनका रहस्यमय संसार तुम्हारे हृदय की रहस्यमयता को कई गुणा बढ़ा देता है। ठीक जैसे एक स्त्री के असली और सम्पूर्ण भावों की कोई लाख कोशिका करके नहीं पकड़ सकता, पढ़ना-समझना तो बहुत दूर की बात है।
पृथ्वी तुम अपनी अनंत रहस्यमयता के साथ एक स्त्री की तरह ही लगातार सतत् चलायमान हो, घूर्णनरत हो। कवि ने विज्ञान के सायों को मानवीय भावनाओं, क्रियाओं की संगति में रखकर स्वयं एक स्त्री के श्वेत-श्याम पक्ष को सतर्क ढंग से प्रस्तुत किया है।
एक स्त्री का सम्पूर्ण दाम त्यागमय है, गरिमामय है। किन्तु बदले से उसे क्या मिला है? और चाहकर भी, चिड़चिड़ा कर भी एक स्त्री अपने ही घरौंदे को क्यों नहीं रौंदती। शायद इसी लिए कि एक स्त्री का ही वृहत् रूप पृथ्वी. है सकल जीव जड़ चेतन की माँ है।
पृथ्वी काव्यांशों की सप्रसंग व्याख्या
1. पृथ्वी तुम घूमती हो ……… नहीं आते।
व्याख्या-
पृथ्वी’ कविता की प्रस्तुत पंक्तियों में नरेश सक्सेना कहते है। कि पृथ्वी निरन्तर घूम रही है। भौगोलिक तथ्य के अनुसार पृथ्वी की दो गतियाँ हैं-प्रथम वह अपनी धुरी पर घूम रही है, द्वितीय वह वह सूर्य के चारों ओर चक्कर लगा रही है। प्रथम से दिन-रात होते हैं और दूर से ऋतु परिवर्तन। इस तथ्य को व्यक्त करते हुए कवि एक शब्द को पकड़ता है-घूमना। पृथ्वी न जाने कब से, अनन्त काल से घूम रही है। इस आधार पर कवि एक जिज्ञासा करता है-पृथ्वी क्या इस तरह निरन्तर घूमते रहने से तुम्हें चक्कर नहीं आते और इस जिज्ञासा के द्वारा कवि पृथ्वी की जड़ता में मानव-चेतना भर देता है।
2. कभी-कभी काँपती हो……… कोई स्त्री हो।
व्याख्या-
नरेश सक्सेना ने अपनी ‘पृथ्वी’ कविता की प्रस्तुत पंक्तियों में पृथ्वी को एक मानवी के रूप में देखा है। पृथ्वी काँपती है तो भूकम्प होता है जिससे धरती की सतह भी प्रभावित होती है और उस पर बसे-उगे नगर गाँव पेड़-पौधे आदि भी। इस सहज कम्पन की घटना को चेतना से जोड़ते हुए कवि मानता है कि पृथ्वी कभी-कभी काँपती है। उसका यह काँपना प्राकृतिक सहजता नहीं उसकी चेतना सत्ता का विषय है। इस काँपने के कारण कवि को लगता है कि यह एक ऐसी स्त्री का क्रोध में काँपना है जो क्रोध के आवेग में अपनी ही गृहस्थी को नष्ट-भ्रष्ट करती है। यहाँ कवि ने पेड़, पर्वत, नदी, टीले गाँव, शहर आदि के सम्मिलित रूप को पृथ्वी की गृहस्थी माना है और पृथ्वी को गृहस्थिन नारी। मानवीकरण की इस संभावना के बीच कवि प्रश्न करता है कि क्या तुम एक स्त्री हो? स्पष्टतः कवि की दृष्टि में पृथ्वी का आचरण तक तेजस्विनी अग्नि गुण प्रधान नारी का है।
3. तुम्हारी सतह पर कितना जल है …….. सिर्फ अग्नि।
व्याख्या-
‘पृथ्वी’ कविता की प्रस्तुत पंक्तियों में नरेश सक्सेना ने भौगोलिक तथ्य को काव्यत्व में परिवर्तित किया है। पृथ्वी की सतह पर प्रायः दो-तिहाई भाग में जल है। इसके नीचे भी विभिन्न स्तरों पर जल है जो खुदाई द्वारा ज्ञात होता है। लेकिन यह भी भौगोलिक सच है कि पृथ्वी के भीतर स्थित जल की सतहों से बहुत नीचे भारी मात्रा में आग है। इसलिए धरती अग्निगर्भा है। कवि की दृष्टि में स्त्री ऊपर से भी जल की तरह तरल है और हृदय के स्तर पर भीतर भी भावनाओं के कारण तरल है। लेकिन उसमें भीतर अग्नि-तत्त्व भी प्रबल है जो प्रायः विशेष परिस्थितियों में उसे ज्वालामुखी बनता देती है और वह चण्डी बन जाती है। इस तरह सभी पृथ्वी में समानता तलाशते हुए कवि पृथ्वी से पूछता है-“क्या तु कोई स्त्री हो?”
4. कितने ताप कितने दबाव ……………… कोई स्त्री हो।
व्याख्या- ‘पृथ्वी’ कविता की प्रस्तुत पंक्तियों में नरेश सक्सेना ने पृथ्वी के रत्नगर्भा रूप का वर्णन किया है। भौगोलिक सच के अन्तर्गत हम जानते हैं कि धरती के नीचे से कोयला निकलता है। वैज्ञानिकों ने अधिक ताप के स्तर पर कोयला से हीरा बनाकर यह सिद्ध किया है कि उच्चतम ताप की स्थिति होने पर विशेष उपादानों के संयोग के कारण कोयला हीरा बन जाता है। धरती के भीतर से खोदकर ही हम अन्य कई रत्न निकालते हैं ये रत्न ताप, आर्द्रता और दबाव की प्रक्रियाओं के कारण निर्मित होते हैं और धरती का रत्नगर्भा नाम सार्थक करते हैं। यह प्रक्रिया अप्रकट घटित होती है। अतः कवि मानता है कि एक चतुर स्त्री की तरह चुपचाप पृथ्वी विभिन्न प्रक्रियाओं से गुजरकर रत्नों का निर्माण कर लेती है। अतः रत्नों से ज्यादा रत्नों की रचना से रहस्य से पृथ्वी का हृदय भरा है। यही स्थिति नारी की होती है वह भी रहस्यमय हृदयवाली होती है। अतः कवि विश्वासपूर्वक जिज्ञासा करता है-“पृथ्वी क्या तुम कोई स्त्री हो?”
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