केदारनाथ सिंह का जीवन परिचय:
- जन्म: केदारनाथ सिंह का जन्म 1932 में चकिया, जिला बलिया, उत्तर प्रदेश में हुआ।
- शिक्षा: उन्होंने एम.ए. और पी-एच.डी. की शिक्षा वाराणसी से प्राप्त की।
- वृत्ति: उन्होंने प्राध्यापन के क्षेत्र में कार्य किया, और पडरौना, गोरखपुर, वाराणसी, और नई दिल्ली में अध्यापन कार्य किया।
- संप्रति: वे जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली के भारतीय भाषा विभाग से हिंदी के प्रोफेसर पद से सेवामुक्त हुए और बाद में स्वतंत्र लेखन में जुट गए।
- सम्मान: उन्हें साहित्य अकादमी, ‘कुमारन आशान’ कविता पुरस्कार, और दयावती मोदी कविता पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
साहित्यिक योगदान:
- प्रमुख कृतियाँ:
- कविता संग्रह: “अभी बिलकुल अभी”, “जमीन पक रही है”, “यहाँ से देखो”, “अकाल में सारस”, “उत्तर कबीर और अन्य कविताएँ”, “बाघ”।
- आलोचना और शोध: “कल्पना और छायावाद”, “आधुनिक हिंदी कविता में बिंब विधान”, “मेरे समय के शब्द”।
- उन्होंने ‘प्रतिनिधि कविताएँ’ (सं. परमानंद श्रीवास्तव) का भी संकलन किया।
साहित्यिक विशेषताएँ:
- नई कविता आंदोलन के महत्त्वपूर्ण कवि: केदारनाथ सिंह ने बीसवीं शताब्दी के छठे दशक में कविता लिखना प्रारंभ किया और ‘नई कविता’ आंदोलन के एक प्रमुख कवि के रूप में स्थापित हुए।
- बिंब विधान में कुशलता: उनकी कविताओं में बिंबों का विशेष महत्व है। वे कविता में बिंबों के निर्माण और उनके नाटकीय प्रभावों पर विशेष ध्यान देते हैं। उनकी कविताओं के बिंब गहरे अर्थों को संप्रेषित करते हैं।
- यथार्थबोध और संवेदनशीलता: केदारनाथ सिंह की कविताएँ गहरे यथार्थबोध से परिपूर्ण होती हैं। वे अपने अनुभवों को ताजगी और सघनता के साथ प्रस्तुत करते हैं।
- भाषा और शिल्प की सजगता: उनकी कविताओं की भाषा शैली और शिल्प में एक चौकन्नी सजगता होती है, जिससे अनेक तथ्य और सच्चाइयाँ सामने आती हैं।
- गाँव और शहर का अद्वितीय मिश्रण: वे महानगरों में रहते हुए भी अपनी जड़ों से जुड़े रहे। उनकी कविताओं में गाँव और कस्बों के जीवन का यथार्थ चित्रण मिलता है, जो समय और यथार्थ की मार झेलते हुए भी अपने अस्तित्व को बचाए रखने के संघर्ष में संलग्न हैं।
जगरनाथ काव्यांशों की सप्रसंग व्याख्या
1. कैसे हो मेरे भाई जगरनाथ …………… बँधती थी तुम्हारी बकरी?
व्याख्या-
प्रस्तुत पंक्तियाँ आधुनिक युगीन कवियों में एक महत्त्वपूर्ण हस्ताक्षर केदारनाथ सिंह की कविता ‘जगरनाथ’ से ली गयी है। इसमें कवि ने बचपन के ग्रामीण साथी जगरनाथ दुसाध को परोक्ष माध्यम बनाकर अपनी बात कहने की चेष्टा की है। जगरनाथ से कवि की अकस्मात भेंट हो जाती है बहुत दिनों पर। स्वभावतः वह उसे रोककर समाचार पूछता है कि तुम कैसे हो? बहुत दिनों के बाद भेंट हुई है। मिलन के लम्बे अन्तराल में जगरनाथ के शरीर में हुए परिवर्तन को लक्षित कर कवि पूछता है कि यह तुम्हारे ललाट पर यह गुम्मट सा क्या उग आया है? फिर वह बच्चों के बारे में पूछता है, दरवाजे के नीम गाछ के बारे में पूछता है जहाँ जगरनाथ की बकरियाँ बँधी रहती थीं। इस पूरे कथन में कवि ने माथे के गुम्मट, बच्चों के समाचार तथा दरवाजे के नीम वृक्ष का हाल पूछकर स्वाभाविकता लाने का प्रयास किया है। वहीं भाई सम्बोध न के द्वारा आत्मीयता स्थापित कर सम्बन्ध का अनौपचारिक बनाया गया है। संवाद की आत्मीयता समय के लम्बे अन्तराल से उत्पन्न तथा स्तर-भेद से उत्पनन औपचारिकता को तोड़ती है।
2. मैं तो बस ठीक ही हूँ ………………. कहीं कुछ गड़बड़ जरूर है।
व्याख्या-
केदारनाथ सिंह रचित कविता ‘जगरनाथ’ उनके तथा उनके बचपन के ग्रामीण मित्र जगरनाथ दुसाध के बीच एकालापी संवाद के रूप में रचित है। इन पंक्तियों में सूच्य रूप में व्यक्त किया गया है कि कवि के द्वारा कुशल समाचार पूछे जाने के उत्तर में जगरनाथ कवि से समाचार पूछता है। इन पंक्तियों में कवि अपना हाल बताते हुए कहता है कि मैं ठीक हूँ, खाता-पीता हूँ और क्लास में पढ़ा आता हूँ, अवसर मिलता है तो दिन में भी एकाध नींद सो लेता है। इन बाहरी बातों के अतिरिक्त वह अपनी बौद्धिक सामाजिक जागरूकता प्रदर्शित करने के लिए यह भी जोड़ देता है कि मुझे हमेशा लगता है कि कहीं कुछ गड़बड़ है। कवि का संकेत सामाजिक राष्ट्रीय जीवन में आ रही गिरावट, जीवन की भागदौड़ और आर्थिक रवैये से उत्पन्न विकलता और उनके कारण मूल्यहीनता की बाढ़ है।
3. पर छोड़ो तुम कैसे हो? ………………. चलती ही रहती है जिन्दगी।
व्याख्या- ‘जगरनाथ’ कविता की प्रस्तुत पंक्तियों में जगरनाथ से बातें करते हुए कवि अपना हाल बताने के बाद पुनः जगरनाथ की ओर मुड़ता है और उसके सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त करने की कड़ी को आगे बढ़ाता हुआ पूछता है कि तुम्हारा कामधाम कैसा चल रहा है? इसी बीच वनसुग्गों की एक पंक्ति उसके ऊपर से उड़ती निकल जाती है। वह उनकी ओर थोड़ा ध्यान देता है मगर शीघ्र ध्यान हटा लेता है, “वह है तो नहीं है तो भी चलती ही रहती है जिन्दगी” कहकर अपनी लापरवाही व्यक्त करता है। इस कथन से स्पष्ट है कि वन-सुग्गों को टें 2 करते उड़ना उसे अच्छा लगता है लेकिन उनके न होने से भी जिन्दगी की चाल में कोई व्यवधान नहीं आता है। उसके कहने के ढंग से स्पष्ट है कि अब की जिन्दगी में पशु-पक्षी, प्रकृति आदि जीने की अनिवार्य शर्त नहीं रह गये हैं।
4. पर यह भी सच है मेरे भाई ………………. बड़ी राहत मिलती है जी को।
व्याख्या-
‘जगरनाथ’ कविता की प्रस्तुत पंक्तियों में केदारनाथ सिंह कहना चाहते हैं कि जीवन की प्राथमिकताएँ और परिस्थितयाँ बदल जाने के कारण अनेक ऐसी चीजों से लगाव का आग्रह कम करना पड़ता है जो जीवन के लिए आवश्यक होते हैं। ऐसी ही एक उड़ते हुए वन-सुग्गों की उड़ती पंक्ति को देखना। इसे स्वीकार करते हुए लेखक कहता है कि वन-सुग्गों को देखने का आग्रह दबा देने के बावजूद सच्चाई यही है कि जब कभी आसमान में लाल या पीले या किसी रंग का कोई पक्षी उड़ता हुआ दीख जाता है तो मन को राहत अनुभव होती है। यहाँ लेखक यह बताना चाहता है कि मन की नैसर्गिक इच्छाओं की पूर्ति का अवसर न मिलने पर उनके प्रति आग्रह घट जाता है और एक उदासीन भाव आ जाता है। लेकिन उनके प्रति सम्मोहन कम नहीं होता। अवसर मिलने पर वे इच्छाएँ यदि पूर्ण होती हैं तो मन को जो आनन्द प्राप्त होता है वह जीवन में सन्तुष्टि और सन्तोष देता है।
5. पर यह तो बताओ ………………. भर जाती है दुनिया।
व्याख्या- ‘जगरनाथ’ शीर्षक कविता की प्रस्तुत पंक्तियाँ मे केदारनाथ सिंह पुनः जगरनाथ की ओर मुखातिब होकर उससे उसके स्वास्थ्य का हाल पूछते हैं कि तुम्हारा जी आजकल कैसा है? इससे लगता है कि जगरनाथ प्रायः अस्वस्थ रहता होगा लेकिन आत्मीयता का यह ज्वार एक क्षण भी नहीं टिकता। कवि तुरंत जगरनाथ को छोड़कर बारिश पर उतर आता है और जानना चाहता है कि क्या इधर बारिश हुई थी फिर जल्दी आमों की ओर चला जाता है और पूछता है कि क्या आमों का पकना शुरू हो गया? और फिर जगरनाथ को भूलकर आमों के स्वाद में खो जाता है। उसकी टिप्पणी के अनुसार यह एक अजीब-सा फल है जिसमें सुगन्ध और स्वाद दोनों का विरल संयोग है जिससे मन की दुनिया भर जाती है पूर्ण परितृप्ति प्राप्त होती है। इन पंक्तियों में लक्ष्य करने की बात यह है कि कवि के मन में जगरनाथ के प्रति अभिरुचि और संवेदना कम है तथा वर्षा और आम की रस-गंध में ज्यादा रुचि है। यह बतलाता है कि कवि की दृष्टि जगरनाथ में जगरनाथ से ज्यादा महत्त्व वनसुग्गे, बारिश और आम का है। इनके बारे में कहने के लिए उसने जगरनाथ का बहाना बनाया है।
6. पर यह क्या? ………………. जाओ ………………. जाओ।
व्याख्या-
प्रस्तुत पंक्तियाँ पाठ्य पुस्तक की ‘जगरनाथ’ शीर्षक से पंक्तियाँ ली गयी है। इसके कवि केदारनाथ सिंह हैं। केदारनाथ सिंह जगरनाथ को रोककर ढेर-सारी जिज्ञासाएँ करते हैं जिनमें कुछ जगरनाथ से सम्बन्धित हैं और कुछ ग्राम-प्रसंग से। इन सबके उत्तर में जगरनाथ कुछ बोलता नहीं, केवल उसके ओठ फड़कते हैं बोलने के लिए। कवि इस पर आश्चर्य व्यक्त करता हुआ अनेक प्रश्न पूछ जाता है, जैसे-तुम्हारे होंठ क्यों फड़क रहे हैं? तुम अब तक चुप क्यों हो? इस तरह खड़े क्यों हो? इत्यादि। फिर वह जगरनाथ को पास बुलाता है क्योंकि उसे बहुत कुछ कहना है। मगर जगरनाथ कुछ बोलता नहीं केवल एक विचित्र दृष्टि से देखता है। कवि को लगता है कि जगरनाथ को मेरी आत्मीयता भरी आतुरता पर विश्वास नहीं हो रहा है, उसे झूठ की गन्ध अनुभव हो रही है। यह कवि के सन्तुलन को गडबड़ा देता है। वह पूछता है क्या तुम्हें जल्दी है? क्या काम पर जाना है? और फिर बिना उसके मन्तव्य जाने अपनी ओर से अनुमति भी दे देता है जाओ मेरे भाई जाओ। मैं तुम्हें नहीं रोकूँगा। इन पंक्तियों से यह धारणा बनती है कि कवि को स्वयं यह आत्मीयता-प्रदर्शन नकली लगता है। उसकी सारी जिज्ञासाओं में बनावटीपन और जगरनाथ के बहाने अपनी बात कहने की आतुरता है जो उसकी अभिजात वृद्धि और कृत्रिम सहानुभूति की पोल खोल रही है।
7. और इस तरह ………………. जगरनाथ दुसाध।
व्याख्या-
‘जगरनाथ’ कविता की ये अंतिम पंक्तियाँ हैं। इसमें कवि की सारी जिज्ञासाओं के उत्तर में जगरनाथ के चुपचाप चले जाने का वर्णन है। कवि कहता है कि जगरनाथ इस तरह चला जा रहा था मानो उसने मुझे देखा ही न हो। और उसके द्वारा अनदेखी किए जाने की मुद्रा इतनी तीखी और धारदार भी कि कवि को चीरता-फाड़ता चला जा रहा हो। इन पंक्तियों का निहितार्थ स्पष्ट है-कवि जगरनाथ का बचपन का साथी है लेकिन वह अब उससे भिन्न है, विशिष्ट है, अध्यापक है। जगरनाथ इस भेद को समझता है कि दोनों दो धरातल के जीव हैं जिनके जीवन-स्तर और बोध में अन्तर है। इस विषमता के कारण जगरनाथ के मन में कवि के लिए कोई आत्मीयता नहीं है। वह प्रतिक्रिया तो व्यक्त नहीं करता लेकिन लगातार चुप रहकर और चुपचाप चले जाकर सारी बातें कह जाता है। उसकी न देखने वाली दृष्टि की धार से चीरा जाकर कवि आहत हो उठता है।
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